चम्पतराय
(लेखक : विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महामंत्री हैंइलाहाबाद उच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय विशेष पीठ अयोध्या से संबंधित मुकदमों को प्राथमिक स्तर पर सुन रही थी अर्थात अदालत ट्रायल कोर्ट के रूप में व्यवहार कर रही थी। इस कारण तीनों न्यायाधीशों ने अपना निर्णय अलग-अलग लिखा व सुनाया। सभी मुकदमों में निर्धारित किये गये सभी वाद-बिन्दुओं पर न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सकारात्मक अथवा नकारात्मक रूप में दिया है।
उच्च न्यायालय की विशेष पूर्ण पीठ के सभी न्यायमूर्ति गणों द्वारा विवादित स्थल पर भगवान श्रीराम का जन्म होना तथा विवादित स्थल को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि होना स्वीकार किया गया है। एक न्यायमूर्ति द्वारा सम्पूर्ण परिसर को एक इकाई मानते हुये ‘भगवान श्रीराम की जन्मभूमि’ की मान्यता दी गयी, जबकि दो अन्य न्यायमूर्ति द्वारा अंश भाग को जन्मस्थली के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। विस्तृत विवेचना के आधार पर न्यायालय द्वारा निर्मोही अखाड़ा का वाद तथा सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड व अन्य मुस्लिमों का वाद निरस्त कर दिया गया। भगवान रामलला व स्थान श्रीराम जन्मभूमि की ओर से प्रस्तुत वाद न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा द्वारा पूर्णतः तथा न्यायमूर्ति अग्रवाल व न्यायमूर्ति खान द्वारा आंशिक रूप में स्वीकार करते हुए प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई।
निर्णय के आधारन्यायाधीशों को अपना निर्णय घोषित करने में आधार बने हैं- मुस्लिम धर्म ग्रन्थ, मुस्लिम वक्फ एक्ट, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, स्कन्द पुराण, मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखी गई पुस्तकें, फ्रांसीसी पादरी की डायरी, अंग्रेज अधिकारियों, इतिहासकारों द्वारा लिखित गजेटियर व ग्रन्थ, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, ढांचे से प्राप्त नक्काशीदार पत्थर तथा शिलालेख, राडार तरंगों से कराई गई भूगर्भ की फोटोग्राफी रिपोर्ट एवं रिपोर्ट के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये उत्खनन की रिपोर्ट एवं गवाहों के बयान।
रामलला क्यों जीते ?हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठित विग्रह जीवित है, वह अपना मुकदमा लड़ सकता है, वह एक विधिक प्राणी है, परन्तु अवयस्क है, उसे मुकदमा लड़ने के लिए कोई संरक्षक चाहिए। रामलला का मुकदमा संरक्षक के रूप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने दायर किया था। हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार सभी सम्पत्ति प्रधान देवता की होती है, उस पर किसी का विपरीत कब्जा नहीं हो सकता। हिन्दू परम्पराओं में विशेष महत्व का होने के कारण स्थान विशेष भी पूज्य है, देवता-तुल्य है, वह भी अपना मुकदमा कर सकता है। हिन्दू धर्मशास्त्र की यह व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। न्यायपालिका ने सदैव इन मान्यताओं को स्वीकार किया है।
निर्मोही अखाड़ा का वाद निरस्त क्यों हुआ ?अदालत में निर्मोही अखाड़ा का मुख्य तर्क था कि विवादित स्थल, जो भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में हिन्दुओं द्वारा पूजित है, का स्वामी निर्मोही अखाड़ा है तथा रामचबूतरे वाला स्थान मन्दिर है जिसकी सेवा का अधिकार प्रारम्भ से ही अखाड़े के पास है। वे तीन गुम्बदों वाले ढांचे के अन्दर रखे भगवान की पूजा, व्यवस्था के लिए नियुक्त किये गये रिसीवर को हटाकर उसका प्रबन्धन स्वयं माँगते थे। उनका यह भी तर्क था कि सम्पूर्ण सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है और भगवान अखाड़े के अन्तर्गत हैं तथा अखाड़े का जन्म भगवान राम के जन्म से पहले हुआ। न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया कि वादी निर्मोही अखाड़ा रामानन्दी वैरागी सम्प्रदाय का एक पंचायती मठ है जो अयोध्या में 1734 ई. से स्थित है इसके पूर्व अयोध्या में इसके स्थापित होने का कोई प्रमाण नहीं है। निर्मोही अखाड़ा न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी है और न ही वाद प्रस्तुत करने का अधिकारी है। प्रस्तुत मुकदमा अवधि बाधित है। इन्हीं कारणों से अदालत ने निर्मोही अखाड़े का मुकदमा रद्द कर दिया।
सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद निरस्त क्यों हुआ ?मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार केवल अपने पूर्ण वैधानिक मालिकाना हक वाली सम्पत्ति ही अल्लाह को समर्पित (वक्फ) की जा सकती है। बाबर भारत में युद्ध जीतने के बाद अधिक से अधिक लगान/टैक्स वसूल करने का अधिकारी था, धरती का मालिक कभी नहीं था। इस मुकदमे में यह स्पष्ट हो गया कि विवादित परिसर बाबर या मीरबाकी की सम्पत्ति नहीं था। अतः वह अल्लाह को समर्पित (वक्फ) भी नहीं हो सकता। वक्फ के लिए जो भी अधिसूचना जारी हुई; वह अप्रैल 1966 में न्यायालय द्वारा अवैध घोषित हो चुकी थी। उसे कभी किसी ने चुनौती नहीं दी। लम्बे समय का कब्जा मालिकाना हक नहीं दिलाता। यदि बहस के लिए यह मान भी लिया जाये कि 1528 से ही मुस्लिमों का इस स्थान पर कब्जा है तो वह कभी भी सतत व शान्तिपूर्ण नहीं रहा और वक्फ बोर्ड को यह भी बताना ही होगा कि बाबर ने किसकी सम्पत्ति पर कब्जा किया और क्या उनकी जानकारी में किया ?
मुस्लिम धर्मग्रन्थों के अनुसार विवादित भूमि पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह कबूल नहीं करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कथन है कि मस्जिद, इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले मैदान में भी। न्यायालय द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड को न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी माना गया और न ही प्रश्नगत ढांचे को इस्लाम के अनुसार सही माना गया। निर्धारित समयसीमा के अन्तर्गत दावा दायर न किये जाने के कारण बहुमत द्वारा वाद निरस्त कर दिया गया।
निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षवाद-बिन्दु : क्या वाद में लिखी गई सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है ? निष्कर्ष-नहीं। वाद-बिन्दु : बारह वर्ष से अधिक समय तक कब्जा रहने के कारण क्या निर्मोही अखाड़े का मालिकाना हक बनता है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़ा विवादित ढांचे वाले मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़े ने अपना वाद वैधानिक समय सीमा के अन्दर दायर किया ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या यह वाद जिस रूप में लिखा गया है उस रूप में वह स्वीकार किये जाने योग्य है ? निष्कर्ष- वाद जिस रूप में लिखा गया है; वह स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वाद-बिन्दु : क्या वादी निर्मोही अखाड़े को कोई राहत दी जा सकती है ? निष्कर्ष- वादी निर्मोही अखाड़ा किसी प्रकार की रियायत का हकदार नहीं है।
निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्षप्रश्नगत सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की नहीं है। बारह वर्ष के विपरीत कब्जे के आधार पर निर्मोही अखाड़े का सम्पत्ति पर हक नहीं बनता। निर्मोही अखाड़ा मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार नहीं है। निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद कालबाह्य है। यह वाद जिस रूप में लिखा गया है स्वीकार नहीं है। निर्मोही अखाड़ा रामानन्द सम्प्रदाय का पंचायती मठ है। निर्मोही अखाड़े को किसी प्रकार की राहत नहीं दी जा सकती। वाद रद्द किया जाता है।
सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षसुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद मुस्लिम समाज के हितों को सुरक्षित रखने के लिए समाज के प्रतिनिधि के रूप में दायर किया गया। इसी प्रकार इस वाद के प्रतिवादीगण हिन्दू समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तीन गुम्बदों वाला विवादित ढांचा वर्ष 1949 के पहले मुस्लिमों के कब्जे में नहीं था। अतः यह कहना भी सही नहीं है कि 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः ढांचे के भीतर मूर्ति होने के बाद ही उनका कब्जा समाप्त हुआ।
1856-57 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा गुम्बद और रामचबूतरे के बीच में एक दीवार खड़ी कर दिए जाने के बाद रामचबूतरा और सीतारसोई वाले बाहरी आँगन में मुस्लिमों का कभी कोई अधिकार नहीं रहा। इसके विपरीत तीन गुम्बदों के ढाँचे वाले भीतरी आँगन का उपयोग हिन्दू और मुसलमान दोनों ही करते थे। सुन्नी मुस्लिम वक्फ एक्ट के विभिन्न प्रावधानों के बावजूद हिन्दू समाज को यह अधिकार था कि वह ढांचे को मस्जिद माने जाने के विरुद्ध चुनौती दे सके। वक्फ बोर्ड के प्रावधान न तो अन्तिम रूप से निर्णायक हैं और न ही हिन्दू समाज के अधिकारों को समाप्त करते हैं। ऐसा कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि 1885 ईस्वी में महंत रघुबर दास द्वारा दायर किया गया वाद जन्मस्थान के लिए था और निर्मोही अखाड़ा जन्मस्थान को प्राप्त करने में रूचि रखता है।
यह प्रमाणित नहीं है कि विवादित ढाँचा 1528 ईस्वी से लगातार, खुलेआम और सब हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए सदैव से मुस्लिमों के कब्जे में था। सुन्नी वक्फ बोर्ड को मुकदमें मे कोई राहत नहीं मिलेगी क्योंकि उनका मुकदमा रद्द किया जाता है। वर्ष 1936 में निर्मित उत्तर प्रदेश मुस्लिम वक्फ एक्ट के अनुसार, विवादित ढांचे के संबंध में कभी कोई वैध अधिसूचना जारी नहीं हुई। जो अधिसूचना जारी हुई थी वह अप्रैल 1966 में जिला अदालत द्वारा रद्द कर दी गई थी। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है।
यह निर्णित किया जाता है कि वह सम्पत्ति (परिसर) जिसे भगवान राम की जन्मभूमि माना जाता है वह रामलला विराजमान में निहित रहेगी। यह भी स्थापित किया जाता है कि विवादित ढाँचे के निर्माण के पहले से ही हिन्दू उस स्थान पर पूजा करता था। वर्ष 1950 में जब तीन गुम्बदों वाले विवादित ढांचे की दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 145 के अन्तर्गत कुर्की हुई; उस समय श्री जावेद हुसैन नाम के व्यक्ति वक्फ कहे जाने वाले उस ढांचे के मुतवल्ली (प्रबन्धक) थे, मुतवल्ली की अनुपस्थिति में अन्य किसी को वक्फ सम्पत्ति का कब्जा नहीं दिलाया जा सकता; क्योंकि वे वहाँ मात्र इबादत करने वाले लोग हैं। वादी सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड व अन्य वादीगण यह सिद्ध करने में असफल रहे कि बाहरी और ढाँचे सहित भीतरी आँगन वाला सम्पूर्ण विवादित परिसर उनके कब्जे में है।
सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्षप्रश्नगत ढाँचा जिसे मस्जिद कहा जाता है; वह मस्जिद नहीं था और उसे बाबर ने नहीं अपितु प्रतिवादियों के कथनानुसार मीरबाकी ने बनवाया था तथा उत्खनन रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जायेगा कि वह एक हिन्दू मंदिर को तोड़कर उसी स्थान पर बनाया गया था। यह भवन कभी अल्लाह को समर्पित नहीं हुआ और न ही इसमें अनादिकाल से नमाज पढ़ी गई और यह भी कहना गलत है कि 1949 के पहले यह भवन सुन्नी वक्फ बोर्ड या मुस्लिमों के कब्जे में था और 1949 के बाद ही उनका कब्जा हटा। विपरीत कब्जे के कारण वादी का अधिकार पूर्ण नहीं माना जा सकता। 1528 ईस्वी के बाद प्रश्नगत ढाँचा कभी भी लगातार और हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए मुस्लिमों के कब्जे में नहीं रहा। प्रश्नगत भवन को इस्लामिक कानून के आधार पर वैधानिक मस्जिद नहीं कहा जा सकता। मस्जिद सुन्नी मुस्लिम द्वारा नहीं बनाई गई। मुतवल्ली के द्वारा केस नहीं लड़ा गया। मुतवल्ली इस वाद में वादी नहीं है इसलिए यह वाद स्वीकार करने-योग्य नहीं है। मुस्लिम वक्फ एक्ट के आधार पर जारी की गई अधिसूचना वैध नहीं थी। उसे अप्रैल 1966 में सिविल जज फैजाबाद द्वारा रद्द किया जा चुका है और इस एक्ट का हिन्दुओं के द्वारा की जानेवाली पूजा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। मुस्लिमों का वाद क्रमांक 4 कालबाह्य है।
रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षनिर्मोही अखाड़ा विवादित ढाँचे के भीतर विराजमान भगवान रामलला की सेवा, पूजा का अधिकारी नहीं है। विवादित ढांचा जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता है; वह बाबरी मस्जिद नहीं है। विवादित ढाँचे को मस्जिद के रूप में घोषित किए जाने के लिए कोई वैध वक्फ निर्मित नहीं हुआ। विवादित ढाँचा जिसे बाबरी मस्जिद के रूप में जाना जाता है, वह जन्मस्थान-मंदिर को तोड़कर बनाया गया। यह सही है कि ईस्वी सन् 1860 के पश्चात् मुस्लिम इस परिसर के भीतरी आँगन में आते थे, नमाज पढ़ते थे। आखिरी नमाज 16 दिसम्बर 1949 को पढ़ी गई।
वादी रामलला विराजमान एवं स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वाद-मित्र के द्वारा वाद दायर किये जाने का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। वाद-मित्र रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि की ओर से वाद दायर कर सकते हैं। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया और यही विग्रह आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर के नीचे स्थापित है और ये विग्रह प्राणप्रतिष्ठित हैं। विवादित सम्पत्ति वाद-पत्र में ठीक प्रकार से लिखी और चिह्नित की गई है। वादी रामलला विराजमान और वादी स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का अधिकार कभी समाप्त नहीं हुआ और इसलिए अधिकार पुनः प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रीराम जन्मभूमि न्यास के बारे में उत्तर देना अनावश्यक है। यह निश्चित किया जाता है कि हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार और जैसा कि वे पूजा करते चले आ रहे हैं, तीन गुम्बदों वाले ढाँचे में बीच वाले गुम्बद का स्थान ही भगवान राम का जन्मस्थान है।
महंत रघुबरदास द्वारा दायर किये गये मुकदमे में 1885 ईस्वी में अदालत का निर्णय वर्तमान वाद के विचार के लिए बाधक नहीं है। वादी रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से हो रही है। वाद कालबाह्य नहीं है। रामलला का वाद आंशिक रूप से स्वीकार्य है।
रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्षप्रश्नगत ढाँचा मस्जिद नहीं था। वह मस्जिद नहीं माना जा सकता। वह जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर उसी के ऊपर बनाया गया था। 1528 से 1949 तक इस स्थान का उपयोग नमाज पढ़ने के लिए सदैव नहीं किया गया। ढाँचे को मस्जिद के रूप में माने जाने के लिए कोई वैध वक्फ नहीं बना। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है। यह कहना गलत है कि निर्मोही अखाड़ा ही केवल रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व करता है। विवादित भवन के भीतर विराजमान रामलला की पूजा का अधिकार निर्मोही अखाड़े का नहीं है।
रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वे वाद-मित्र के माध्यम से अपना मुकदमा लड़ सकते हैं। वाद-मित्र वादी के रूप में रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व अदालत में कर सकते हैं। विवादित परिसर ही हिन्दुओं की परम्पराओं, विश्वास और आस्था के आधार पर श्रीरामलला विराजमान का जन्मस्थान है। परिसर में रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से होती चली आ रही है। प्रस्तुत वाद में प्रश्नगत सम्पत्ति का प्रस्तुतीकरण ठीक ढँग से किया गया है। श्रीराम जन्मभूमि न्यास एक वैधानिक न्यास है। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रामलला मध्य गुम्बद के नीचे स्थापित किये गये और वह विग्रह ही आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर में विराजमान हैं और यह विग्रह प्राण-प्रतिष्ठित है। रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि के वाद में माँगी गई राहत ग्राह्य है।
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निर्णय का सारांश01. हिन्दुओं की आस्था और विश्वास के आधार पर विवादित भवन के बीच वाले गुम्बद के नीचे का भाग ही भगवान राम की जन्मभूमि है।
02. विवादित भवन सदैव से एक मस्जिद माना जाता रहा और मुस्लिम उसी रूप में उसमें इबादत करते रहे। यद्यपि यह सिद्ध नहीं किया जा सका कि 1528 ईस्वी में बाबर के समय में इसे बनाया गया। वाद में लिखे गये तर्कों और दस्तावेजों के अतिरिक्त यह कहना कठिन है कि कब और किसके द्वारा इस विवादित भवन का निर्माण किया गया। परन्तु यह स्पष्ट है कि इस विवादित परिसर का निर्माण ईस्वी सन् 1766 से 1771 के बीच अवध में फ्रांसीसी पादरी टाइफैनथैलर के आगमन के पहले हुआ। विवादित परिसर का निर्माण एक गैरइस्लामिक, धार्मिक भवन अर्थात् हिन्दू मंदिर को गिराने के पश्चात् किया गया।
03. रामलला का विग्रह विवादित ढाँचे के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखा गया।
04. निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद वैधानिक समयसीमा के पश्चात् दायर किये गये, इसलिए रद्द किये जाते हैं।
न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निर्णय का सारांश01. विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है। स्थान श्रीराम-जन्मभूमि एक विधिकप्राणी है और देवता है। दैवीय भाव से युक्त है और एक बालक के रूप में रामलला का जन्मस्थान होने के कारण पूजित है। दिव्यता का भाव सदैव रहता है, सब स्थानों पर रहता है, हर समय रहता है, सबके लिए रहता है और अपने-अपने हृदय में होनेवाली अनुभूति के अनुसार यह देवत्व निराकार अथवा अन्य किसी भी आकार का हो सकता है।
02. विवादित भवन बाबर द्वारा बनवाया गया। निर्माण का वर्ष निश्चित नहीं है; परन्तु यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना; अतः मस्जिद का स्वरूप नहीं ले सकता। यह भवन एक पुराने भवन को गिराकर उसी स्थान पर बनाया गया। पुरातत्व विभाग ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह पुराना भवन एक विशाल हिन्दू धार्मिक भवन था।
03. मूर्तियां विवादित भवन के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखी गईं।
04. यह सिद्ध है कि विवादित सम्पत्ति भगवान राम की जन्मभूमि है और सर्वसामान्य हिन्दुओं को यह अधिकार है कि वह चरणपादुका, सीतारसोई और उस स्थान पर रखी हुई अन्य पूजा-योग्य वस्तुओं की पूजा करें। यह भी सिद्ध है कि हिन्दू विवादित स्थान को जन्मस्थान के रूप में पूजते चले आ रहे हैं अर्थात् जन्मभूमि एक देवता है और अनादिकाल से भक्त इसे पवित्र स्थान मानकर दर्शन करने आते रहे हैं। विवादित भवन के निर्माण के पश्चात् 23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में मूर्तियाँ वहाँ रखी गईं; यह सिद्ध है। यह भी सिद्ध है कि विवादित परिसर का बाहरी भाग (बाहरी आँगन जिसमें राम चबूतरा, सीतारसोई व चरणचिह्न थे) सदैव से केवल हिन्दुओं के कब्जे में रहा और वे सदैव इसकी पूजा करते रहे और भीतरी भाग (भीतरी आँगन जिसमें तीन गुम्बदों वाला ढाँचा था, उसमें भी वे पूजा करते रहे) यह भी प्रमाणित है कि यह विवादित भवन मस्जिद नहीं माना जा सकता; क्योंकि यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना।
05. सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद तथा निर्मोही अखाड़े का वाद वैधानिक समय-सीमा के बाद दायर किये गये, अतः निरस्त किये जाते हैं।
न्यायमूर्ति एस.यू. खान के निर्णय का सारांश01. विवादित ढाँचा बाबर के आदेश से मस्जिद के रूप में बनवाया गया; परन्तु यह प्रमाणित नहीं हो सका कि निर्मित भवन सहित सम्पूर्ण विवादित परिसम्पत्ति बाबर की या मस्जिद को बनाने वाले की या जिसके आदेश से इसे बनाया गया उसकी सम्पत्ति है।
02. मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मंदिर को नहीं तोड़ा गया; परन्तु मस्जिद किसी मंदिर के खण्डहर पर बनाई गई; जो खण्डहर धरती के नीचे मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से दबे पड़े थे और उसी खण्डहर की कुछ सामग्री मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई। मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से ही हिन्दू मानते थे तथा उनका विश्वास था कि इस बहुत विशाल भूखण्ड में कहीं भगवान राम का जन्मस्थान स्थित है। विवादित परिसर इस विशाल भूखण्ड का एक छोटा सा ही हिस्सा है। हिन्दू समाज का यह विश्वास किसी स्थान विशेष को चिह्नित नहीं करता, जिसके मध्य यह विवादित परिसर भी आ जाये। मस्जिद के बन जाने के पश्चात् से ही हिन्दू इसी विवादित परिसर को राम की जन्मभूमि के रूप में पहचानने लगे।
03. 1855 ईस्वी के बहुत पहले ही रामचबूतरा और सीतारसोई थी और हिन्दू उसकी पूजा करते थे। यह अपने में बहुत अद्वितीय और दुर्लभ अवस्था है कि मस्जिद की चारदीवारी के भीतर एक हिन्दू धार्मिक स्थान भी है; जिसमें हिन्दू पूजा करते हैं और मस्जिद में मुसलमान नमाज भी पढ़ते हैं। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही इस संपूर्ण विवादित परिसर का सामूहिक भागीदार माना जायेगा। यद्यपि हिन्दू और मुसलमान परिसर के अलग-अलग हिस्सों को उपयोग कर रहे थे और वे अलग-अलग हिस्से उनके कब्जे में भी थे, तो भी इससे परिसर का बंटवारा नहीं हुआ और संपूर्ण परिसर दोनों के ही सामूहिक कब्जे में बना रहा। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही पक्ष अपने मालिकाना हक को सिद्ध करने में असफल रहे; अतः दोनों का सामूहिक कब्जा होने के कारण दोनों का ही मालिकाना हक माना जायेगा। इसलिए दोनों पक्ष ही सामूहिक कब्जे के आधार पर सम्पत्ति के सामूहिक मालिक घोषित किये जाते हैं। एक प्राथमिक डिक्री इस शर्त के साथ जारी की जाती है कि वास्तविक बँटवारे के समय बीच वाले गुम्बद का स्थान हिन्दू को दिया जायेगा; जहाँ आज रामलला विराजमान हैं।
04. 1949 के कुछ दशकों पूर्व से ही हिन्दुओं ने यह मानना और विश्वास करना प्रारंभ कर दिया कि तीन गुम्बदों वाले ढांचे में मध्य गुम्बद का भाग ही भगवान राम की ठीक-ठीक जन्मभूमि है और उसी स्थान पर आज कपड़े का अस्थाई मंदिर बना है। इसी स्थान पर 23 दिसम्बर 1949 के अतिप्रातः मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया।
विशेष :- न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने किसी भी वाद को कालबाह्य मानकर अथवा अन्य किसी कारण से भी निरस्त नहीं किया। न्यायमूर्ति एस.यू. खान द्वारा पारित आदेशउपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह आदेश दिया जाता है कि मुस्लिम, हिन्दू और निर्मोही अखाड़ा तीनों ही विवादित सम्पत्ति (वर्ष 1950 में श्री शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा तैयार किये गये मानचित्र में जिसे ए, बी, सी, डी, ई, एफ से दर्शाया गया है और यह मानचित्र जनवरी 1950 में गोपाल सिंह विशारद द्वारा दायर किये गये वाद में नत्थी है) के संयुक्त स्वामी घोषित किये जाते हैं और तीनों को ही इस परिसर का 1/3 भाग प्रत्येक को उनकी पूजा और प्रबन्धन के लिए दिया जायेगा। तदनुसार प्रारम्भिक डिक्री इस आशय के साथ पारित की जाती है कि वास्तविक बँटवारे में मध्य गुम्बद के नीचे का अंश जहाँ वर्तमान में भगवान रामलला विराजमान हैं, हिन्दुओं को दिया जायेगा तथा वास्तविक बँटवारे में रामचबूतरे को परिसर का वह भाग अवश्य दिया जायेगा जो भाग शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा बनाये गये मानचित्र में रामचबूतरा और सीतारसोई के नाम से दर्शाये गये हैं। यह भी स्पष्ट किया जाता है कि तीनों पक्षकारों को परिसर का 1/3-1/3 भाग बराबर-बराबर देने की घोषणा की गई है, अतः यदि वास्तविक बँटवारे के समय कुछ समन्वय, समायोजन की आवश्यकता पड़ती है; तो वह किया जाये और प्रभावित पक्ष को आस-पास की उस भूमि का (जो आज भारत सरकार के अधिकार में है) कुछ भाग देकर क्षतिपूर्ति की जाये; ताकि तीनों पक्षकारों को समान भूमि प्राप्त हो।
न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने अपने आदेश में लिखा है कि जिन वाद-बिन्दुओं पर मैंने अपने निष्कर्ष नहीं लिखे हैं; उन सभी वाद-बिन्दुओं पर मेरी सहमति सहयोगी न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षों से है।
क्या हिन्दू समाज मस्जिद का विरोधी है ?हिन्दू समाज न तो मुस्लिम समाज का विरोधी है और न ही मस्जिद का विरोधी है। वर्ष 1992 में नवम्बर मास के अन्तिम सप्ताह में तथा दिसम्बर के पहले सप्ताह में अयोध्या में सम्पूर्ण भारत से आये कई लाख रामभक्त (कारसेवक) एकत्र थे। अयोध्या में 15 से भी अधिक मस्जिदें अभी भी हैं; परन्तु किसी भी मस्जिद को कारसेवकों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या में कई हजार मुस्लिम आबादी है। किसी मुस्लिम को पूरे देश से आये रामभक्तों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या, फैजाबाद अथवा मार्ग में भी किसी दुकानदार को पीड़ित नहीं किया। किसी महिला से अभद्र व्यवहार नहीं हुआ। साधु-सन्तों ने दिल्ली में सम्पन्न हुई धर्मसंसद में सार्वजनिक घोषणा की थी कि 6 दिसम्बर 1992 को प्रातः 11.45 बजे अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर-निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे। सभी ने इस दिनांक व समय का पालन किया। निर्धारित समय के पूर्व किसी ने भी ढाँचे को स्पर्श नहीं किया। वे पूर्ण अनुशासित थे। वे एक बड़ा लक्ष्य अपने हृदय में सँजोकर अयोध्या आये थे। उन्हें केवल श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े तीन गुम्बदों वाले उस ढाँचे से सरोकार था; जिसे हिन्दू समाज 464 साल से गुलामी का कलंक मानता था और स्वाभिमानी भारत उस कलंक को मिटा देना चाहता था। वह ढाँचा धार्मिक उपासना-स्थल के रूप में नहीं बनाया गया था; अपितु भारत पर इस्लाम की विजय के प्रतीक के रूप में हिन्दू समाज के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर खड़े मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। इस ढाँचे को हटा दिया गया; तो यह उसी प्रकार उचित रहा जैसे दिल्ली में इण्डिया गेट के नीचे खड़ी किसी अंग्रेज की मूर्ति की किसी देशभक्त ने नाक तोड़ दी; तो भारत सरकार ने उसे सम्मानपूर्वक हटवाकर कहीं रख दिया। उसकी कोई आलोचना नहीं करता; क्योंकि वह प्रतिमा भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य की याद दिलाती थी।
प्रतिवादियों को भी जानेयह समझना आवश्यक है कि श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी और राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (जिसका गठन जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारिकापीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज द्वारा हुआ) का स्वतंत्र रूप से कोई मुकदमा नहीं है। उन्हें केवल अन्य हिन्दू पक्षकारों के समान प्रतिवादी के रूप में पक्षकार बनाया गया है। इनके द्वारा किसी दावे में कोई प्रतिदावा भी प्रस्तुत नहीं किया गया। इस कारण न्यायालय इनके पक्ष में कोई आदेश अलग से देने की स्थिति में नहीं है। श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी व श्री मदनमोहन गुप्ता- संयोजक राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति, दोनों ही सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे में स्वयं अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने। श्रीमहंत धर्मदास पहलवान भी अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने थे। परमहंस रामचन्द्र दास जी, हिन्दू महासभा दोनों को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने प्रतिवादी बनाया। परमहंस जी के साकेतवासी हो जाने के कारण उनके शिष्य महंत सुरेशदास प्रतिवादी बने। निर्णय प्रतिवादियों के पक्ष में नहीं होगा; अपितु वादी निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड अथवा रामलला विराजमान आदि में से किसी एक के पक्ष में होगा। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे अदालत ने रद्द कर दिये हैं। रामलला विराजमान का वाद स्वीकार हुआ है। हाशिम अंसारी मुस्लिमों के वाद में कुल 10 वादियों में से मात्र एक वादी हैं जिनका अपना स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं है।
मुकदमों की पैरवी करने वाले अधिवक्ताओं का विवरण ?गोपाल सिंह विशारद के मुकदमे की पैरवी लखनऊ के श्री पुत्तुलाल मिश्रा अधिवक्ता करते थे, उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ के ही एक युवा अधिवक्ता श्री देवेन्द्र प्रसाद गुप्ता उसकी पैरवी करने लगे। अन्त में श्री अजय पाण्डेय अधिवक्ता ने उनकी ओर से अदालत के सामने एक दिन बहस भी की।
निर्मोही अखाड़े की ओर से अयोध्या निवासी अधिवक्ता श्री रणजीत लाल वर्मा पैरवी करते थे। वे नित्य अदालत में आते भी थे। उन्होंने ही अदालत में जिरह/बहस भी की। उनकी अनुपस्थिति में उनके पुत्र श्री तरुणजीत वर्मा अदालत में उपस्थित रहते थे।
सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से श्री जफरयाब जिलानी एवं श्री मुश्ताक अहमद सिद्दीकी एवं अन्य तीन-चार अधिवक्ताओं की टोली पैरवी करती थी। श्री अब्दुल मन्नान भी इस मुकदमे में पैरवी करते थे, वे बहुत बुर्जुग थे, उनका देहावसान हो गया। प्रसिद्ध विधिवेत्ता श्री सिद्धार्थ शंकर रे (बंगाल), जफरयाब जिलानी और मुश्ताक अहमद सिद्दीकी ने जिरह/बहस की।
रामलला विराजमान की ओर से श्री वेदप्रकाश निगम अधिवक्ता पैरवी करते थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के.एन. भट्ट ने रामलला विराजमान की ओर से अदालत में बहस की।
प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज (वर्तमान में महंत सुरेश दास जी दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या) की ओर से फैजाबाद निवासी श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता गत 17 वर्षों से पैरवी कर रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने बहस की, उनका सहयोग सर्वोच्च न्यायालय के ही अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रमजीत बनर्जी, सौरभ शमशेरी एवं भक्तिवर्धन सिंह ने किया।
श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता ने रामलला विराजमान एवं प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास दोनों की ओर से पुरातत्व की रिपोर्ट पर एवं गवाहों के बयान तथा दस्तावेजों पर बहस की।
प्रतिवादी बाबा अभिराम दास (वर्तमान में श्रीमहंत धर्मदास जी) की पैरवी फैजाबाद निवासी अधिवक्ता श्री वीरेश्वर द्विवेदी करते थे। उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ निवासी श्री राकेश पाण्डे अधिवक्ता ने उनकी पैरवी की, (श्री राकेश पाण्डे के पूज्य पिताजी श्री के.एम. पाण्डेय ने जिला न्यायाधीश के रूप में ही श्री राम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने का आदेश दिया था)। मद्रास हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने श्रीमहंत धर्मदास जी की ओर से अदालत में बहस की।
प्रतिवादी श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज द्वारा गठित) की ओर से कुमारी रंजना अग्निहोत्री अधिवक्ता उपस्थित रहती थीं। बहस कलकत्ता हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एन. मिश्रा ने की। प्रतिवादी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की ओर से जिरह/बहस अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन (लखनऊ) ने की। प्रतिवादी रमेशचन्द्र त्रिपाठी की ओर से कोई अधिवक्ता प्रस्तुत नहीं हुआ; परन्तु किसी के बहकावे में आकर निर्णय टलवाने के लिए अदालत में अवश्य चले गये।