शिखर पर तमाम जगह खाली है लेकिन वह पहुचने की लिफ्ट कही नहीं है वहां एक एक कदम सीढ़ियों के रस्ते ही जाना होगा

Thursday, May 20, 2010

हरिद्वार का पौराणिक इतिहास


शिवालिक पर्वत-माला के विल्व पर्वत के मध्य कल-कल निनाद करती पापों का शमन करने वाली धवला गंगा प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं, गृहस्थों यहां तक कि सिध्द-गंधर्वों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। अपनी शीतलता व मोक्ष प्रदान करने की शक्ति के कारण ही व्यक्ति अनायास ही मॉ गंगा की शरण में खिंचा चला आता है। हरिद्वार की मुख्य पहचान मॉ गंगा के कारण तो है ही, साथ ही मंदिरों व साधु-संतों की नगरी के कारण भी कही जाती है। गंगा की धवल धारा, कल-कल निनाद, मंदिरों से सुबह-शाम आती शंख व घण्टा-ध्वनि, संतों की अमृत-वाणी यहां आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करने के साथ शांति प्रदान करती है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष करोड़ों लोग देश-विदेश से यहां आते है।
हरिद्वार के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं हैं। विभिन्न मत-मतान्तर, सम्प्रदायों का पवित्र स्थल होने के कारण इसको विभिन्न नामों से जाना जाता है। ऋषि-मुनियों की तपस्थली व देवभूमि का प्रवेश-द्वार तथा देवताओं का निवास-स्थान होने के कारण इसे स्वर्गद्वार भी कहा जाता है। पांडवों के स्वर्ग-गमन के लिए इसी स्थान से होकर जाने के कारण इसे स्वर्ग द्वार कहा जाता है। हिमालय में स्थित चार धामों में से एक केदारनाथ धाम जाने वाले श्रध्दालु व शैव मत के लोग इसे ''हरद्वार'' अथार्त् शिव का द्वार भी कहते हैं। बद्रीनाथ धाम यात्रा का प्रवेश द्वार होने के कारण तथा बद्रीनाथ जाने वाले वैष्णव लोग भगवान् विष्णु के हरि नाम पर इसे हरिद्वार कहते हैं।
मॉ भागीरथी हिमालय से निकलने के पश्चात् संकरे पहाड़ी मार्गों से होकर हरिद्वार के मैदान में प्रवेश करती है तथ्ज्ञा यहीं से ही गंगोत्री धाम का प्रवेश प्रारम्भ होता है, इस कारण इसे गंगा-द्वार भी कहा जाता है। उज्जैन के राजा भर्तृहरि अपना राजपाट छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर यहां मॉ गंगा की शरण में चले आए थे और यहीं तप करते हुए उन्होंने अपनी देह का त्याग कर दिया। भाई के याद में राजा विक्रमादित्य ने ब्रह्मकुण्ड पर पैड़ियों का निर्माण करावाया जिसे भर्तृहरि की पैड़ी कहा जाता था। कालान्तर में यही भर्तृहरि की पैड़ी हरि की पैड़ी के नाम से विख्यात हुई।
राजा विक्रमादित्य ने भाई भर्तृहरि के याद में एक महल भी बनवाया था। भर्तृहरि का वह महल आज भी भग्नावेषों के रूप में हरकी पैड़ी के समीप डाटवाली हवेली के नाम से खड़ा है। स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में हरिद्वार का वर्णन मायापुरी के नाम से मिलता है। मतानुसार मय दानव की निवास-स्थली होने के कारण इसका नाम मायापुरी पड़ा। कनिंघम के अनुसार हरिद्वार को कोह-पैरी कहा गया। कोह का अर्थ पहाड़ होता है। उस समय हर की पैड़ी पहाड़ की तलहटी में एक छोटे से कुण्ड के रूप में रही होगी। अकबर के काल इतिहासकार अबुल फजल ने ''आइने अकबरी'' में लिखा कि माया ही हरिद्वार के नाम से जानी जाती है।
अकबर की मॉ गंगा के प्रति अगाध श्रध्दा थी। अकबर के नवरत्नों मे से एक राजा मानसिंह ने हरि की पैड़ी का जीर्णोध्दार करवाया था। कनिंघम ने लिखा है कि मानसिंह ने गंगा की धारा के बीच एक अष्टकोणी स्तम्भ बनवाया था। वही स्तम्भ गंगा मंदिर के रूप में आज भी है। गंगा मंदिर के नीचे राजा मानसिंह के अस्थि-अवशेष भी गड़े हुए है। गंगा मंदिर राजा मानसिंह की छतरी के नाम से भी माना जाता है। कहते है कि मृत्यु के पश्चात् जब राजा मानसिंह के अस्थि-अवशेष गंगा में विसर्जित करने के लिए हरिद्वार आये तो यहां के तीर्थ पुरोहितों ने उसके अस्थि विसर्जन कराने से इंकार कर दिया। इंकार की वजह मानसिंह का अपनी बहन जोधाबाई का अकबर के साथ विवाह करना था।
तीर्थ पुरोहितों द्वारा अस्थि-विसर्जन करवाने से इंकार करने के बाद मानसिंह की अस्थियां गंगा मंदिर के नीचे गाड़ दी गई। दक्ष-यज्ञ में सती द्वारा योगाग्नि से स्वयं के प्राणों का उत्सर्ग करने के पश्चात् उनकी देह को भगवान शिव द्वारा सती के वियोग में उनके देह को लेकर जाते समय संसार की चिंता करते हुए भगवान् विष्णु की आज्ञा से सुदर्शन चक्र ने सती की देह के टुकड़े किए जिनमें सती की नाभि यहां गिरने के कारण इसे मायापुरी कहा जाता है। कहते हैं कि हरिद्वार में कपिल मुनि का आश्रम होने के कारण यह स्थान ''कपिला'' के नाम से भी प्रसिध्द था।
कपिलाश्रम हरिद्वार का नाम पहले-पहल आता है। जब सूर्यवंशी राजा सगर के अश्वमेघ यज्ञ के छोड़े गए अश्व को कपिल मुनि के आश्रम में बांधे जाने का उल्लेख मिलता है। जब भगवान् राम के पूर्वज तथा इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ के बाद दिग्विजय के लिए अश्व को छोड़ा तो उसके साथ अपने साठ हजार पुत्र भी अश्व रक्षा के लिए भेजे। राजा सगर के यज्ञ से घबराए इन्द्र ने यज्ञ के अश्व को चुराकर हरिद्वार क्षेत्र स्थित कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया।
अश्व के चोरी होने की खबर लगते ही सगर-पुत्रों ने अश्व की खोज आरम्भ की। अश्व को ढूंढ़ते हुए सगर-पुत्र कपिल मुनि के आश्रम जा पहुंचे। अश्व को आश्रम में बंधा देख सगर-पुत्रों ने मुनि को अपशब्द कहे। समाधि से उठने के बाद मुनि कपिल क्रोधित होकर सबको श्राप देकर भस्म कर दिया। सगर के वंशज राजा ने अपने पुरखों के उध्दार के लिए कठिन तपस्या की तथा मॉ गंगा को धरती पर लाए। स्वर्ग से उतरकर मॉ गंगा भगवान् शिव की जटाओं से होते हुए राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चल दी।
जब राजा भगीरथ गंगा को लेकर हरिद्वार पहुंचे तो उनके सगर-पुत्रों के भस्म हुए अवशेषों को गंगा के स्पर्श मात्र से मोक्ष प्राप्त हो गया। तब से आज तक हरिद्वार मे अस्थि-विसर्जन की परम्परा चली आ रही है। देश के कोने-कोने से लोग अपने मृत परिजनों के अस्थि-अवशेष लेकर यहां गंगा में विसर्जित करने के लिए आते है।
मुगल शासक तैमूर लंग के साथ 1399 में हरिद्वार आए इतिहासकार शर्फुद्दीन ने हरिद्वार को ''कायोपिल'' व ''कुपिला'' कहा। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सन् 634 में अपनी भारत यात्रा के दौरान हरिद्वार का उल्लेख ''मो-यू-लो'' के नाम से किया है। 1608 में युरोपियन यात्री टार्म कार्बेट ने यहां आने पर हरिद्वार को ''कैपिटल आफॅ शिवा'' के नाम से संबोधित किया है। कहते है कि ब्रह्मकुण्ड जहां वर्तमान हर की पैडी है वहां पर हर अर्थात् शिव व हरि अर्थात विष्णु ने जल-क्रीड़ा की थी, इस कारण इसे हरद्वार व हरिद्वार कहा जाता है।

हरिद्वार से सटा हुआ लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर पौरणिक स्थल कनखल है। कहा जाता है कि यह स्थान हरिद्वार से अधिक प्राचिन है। कनखल भगवान् शिव की ससुराल व ब्रह्मा के पैर के दाहिने अंगूठे से उत्पन्न प्रजापति राजा दक्ष की राजधानी थी। कहा जाता है कि कनखल का नाम एक ''खल'' नामक राक्षस के नाम से पड़ा। इस पवित्र क्षेत्र में आने पर यहां के कण मात्र के स्पर्श से उसे मुक्ति मिली थी। इस कारण इस क्षेत्र को कनखल कहा जाता है। महाकवि कालीदास ने अपनी रचना अभिज्ञान-शाकुंतलम् में भी कनखल का उल्लेख किया है। स्कन्द व शिव पुराण में भी कनखल का वर्णन किया गया है।
20 मई, 2010

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