शिखर पर तमाम जगह खाली है लेकिन वह पहुचने की लिफ्ट कही नहीं है वहां एक एक कदम सीढ़ियों के रस्ते ही जाना होगा

Friday, December 17, 2010

इस दहशत के पीछे आखिर मकसद क्या है ?

अवनीश सिंह
समय 6 बजकर 35 मिनट
स्थान - काशी का शीतला घाट
दिनांक – 7 दिसम्बर 2010
हर रोज की तरह मंगलवार की शाम शीतला घाट पर गंगा आरती देखने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों का तांता लगा है; तभी अचानक तेज धमाकों की आवाज होती है और उसके बाद चारों तरफ चीख पुकार। भगदड़ में साल भर की बच्ची और एक महिला की मौत हो गयी और दो विदेशी पर्यटकों सहित 40 से ज्यादा लोग घायल। इस तरह से एक और आतंकी घटना को अंजाम दे दिया जाता है।

धमाकों के बाद लोग सदमे में नजर आए, पर दुर्भाग्य की बात यह रही क‍ि हर बार की तरह इस बार भी धमाकों का धुआँ छँटते ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ने एक-दूसरे पर दोषारोपण शुरू कर दिए। सही यह होता की बयानबाजी के बजाय इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई रूपरेखा बनाई जाती। इस पर गंभीरता से चिंतन की जरूरत है, क्योंकि इन घटनाओं के होने के पीछे कई कारण हैं, जो इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं क‍ि आतंकियों ने इस देश में किस हद तक जड़ें जमा ली हैं।

धमाके की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) ने ली। इसके साथ ही धमाके के करीब आधे घंटे बाद ई-मेल से उसने और धमाकों को अंजाम देने की धमकी दी। इस धमाके के पीछे आखिर क्या है इनका मकसद.. पहले आतंकी हमला और फिर अपनी घिनौनी करतूत की जिम्मेदारी ई-मेल के जरिए लेना, ये है आईएम का तरीका। आईएम यानि वो गुट जिसे केंद्र सरकार इसी साल जून में आतंकी संगठन घोषित कर चुकी है। अलग-अलग धमाकों में 500 से ज्यादा लोगों की जान लेने वाले इस आतंकी संगठन के तार पाकिस्तान से भी जुड़े हैं।

आतंकवादी संगठनों का बैक्टेरिया जिस दर से दुनिया में बढ़ रहा हैं उससे लगता है कि यह आने वाले सालों में लाइलाज बीमारी बन जाएगा। सिर्फ भारत की बात की जाए तो यहां विभिन्न राज्यों में 175 से अधिक आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। प्रमुख राजनीतिक व व्यसायिक शहर इनके निशाने पर हैं। यह संगठन दिनोंदिन अपनी संख्या में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। पाकिस्तान, तालिबान, ईराक तथा अन्य पड़ोसी देशों में बच्चों को आतंकवाद की पढ़ाई में अव्वल बनाया जा रहा हैं। इनके हाथों में किताबों की जगह हथियार होते हैं। राजनैतिक समर्थन से पोषित हो रहे यह संगठन इतने हाइटेक हैं कि लैपटॉप से लेकर रॉबोट रचने तक की कला इन्हें आती हैं।

इंडियन मुजाहिदीन को प्रतिबंधित सिमी और पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर का मुखौटा माना जाता है। दिल्ली, मुंबई, यूपी और बैंगलोर के कई ब्लास्ट में इंडियन मुजाहिदीन का नाम शामिल रहा है। सरकार ने इंडियन मुजाहिदीन को गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम के तहत आतंकवादी संगठनों की लिस्ट में डाला है। जेहाद के नाम पर बेगुनाहों का खून बहाने वाले इस आतंकी संगठन का नाम सबसे पहले 23 फरवरी 2005 को उस वक्त चर्चा में आया जब उसने वाराणसी में ब्लास्ट किया था। इस घटना में 8 लोग घायल हुए थे। पाबंदी लगने के बाद एक बार फिर इंडियन मुजाहिदीन ने वाराणसी को ही निशाना बनाया है।

खबर है कि देश का प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन ‘सिमी’ (स्टूडेंट्‌स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) ‘पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ के नये बैनर तले अपने को संगठित कर रहा है। 2006 में भारत सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया था, उसके बाद खुलेआम अपनी गतिविधियां चलाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। यद्यपि प्रतिबंध के बाद भी सरकार ने उसके सदस्यों को गिरफ्त में लेने का कोई प्रयास नहीं किया, जिसके कारण वह गुप्त रहकर अपनी कार्रवाइयों को अंजाम देता रहा, फिर भी गिरफ्तारी के डर से उसके बहुत से सदस्य इधरउधर हो गये। कई इंडियन मुजाहिदीन में चले गये, तो कई बंगलादेश व ख़ाडी के देशों से होकर पाकिस्तान पहुंच गये। यहां बचे लोगों ने ‘वहादते इस्लामी’ नाम से एक संगठन शुरू किया, लेकिन इसके तहत कोई खास काम नहीं हो सका।

वास्तव में किसी आपराधिक संगठन पर प्रतिबंध लगाना तब तक निरर्थक होता है, जब तक कि उसके सारे सदस्यों को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई न सुनिश्चित की जाए। केवल कानूनी प्रतिबंध लगा देने से तो पूरा संगठन निष्क्रिय नहीं हो जाता। पाकिस्तान में कितनी ही बार लश्करएतैयबा जैसे जिहादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई की गयी, लेकिन ये संगठन केवल अपना नाम व बैनर बदलते गये। भारत में भी यही हो रहा है। प्रतिबंध लगाकर सरकार भी निश्चित हो जाती है और प्रतिबंधित संगठन के सदस्य बिखरकर जगहजगह अपने सुप्त संगठन बनाने में लग जाते हैं। पिछले कुछ सालों में इंडियन मुजाहिदीन सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाला आतंकी संगठन बनकर उभरा है। स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया यानी SIMI से अलग हुए आतंकियों ने ये संगठन खड़ा किया है। लेकिन नए नाम के साथ उसके काम करने के तौर तरीकों में भी बदलाव आया है। पिछले 5 साल में इंडियन मुजाहिदीन का नाम करीब 10 बड़े आतंकी हमलों से जुड़ा है।

इसके साथ ही केन्द्र और राज्य सरकारों को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। शीर्ष नेतृत्व को कुछ कठोर कदम उठाना ही होंगे, भले ही इसके लिए उन्हें अपने राजनैतिक हित भी खतरे में क्यों न डालना पड़ें, क्योंकि नेता हो या आम आदमी सबका वजूद इस देश से है, इसकी सुरक्षा सर्वोपरि है। दिल्ली, मुंबई या कोलकाता के वातानुकूलित क्लब और होटलों में गोष्ठी करने वाले कुछ भ्रष्ट बुद्धिवादियों के मन भले ही अपने इन साथियों के लिए धड़कते हों पर आम नागरिक के मन में इनके लिए कोई सहानुभूति नहीं है। उसकी दृष्टि में ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। उसका बस चले तो अपराधियों के साथ इन तथाकथित बुद्धिवादियों का भी एनकाउंटर कर दे।

गड़बड़ी कहाँ है और इसका “मूल” कहाँ है, यह सभी जानते हैं, लेकिन स्वीकार करने से कतराते, मुँह छिपाते हैं। लेकिन दाद देनी होगी भारत देश की जहां देशभक्तों का अपमान और सेक्यूलरों का सम्मान होता है। कश्मीर घाटी में 32 दांतों के बीच जीभ की तरह काम कर रहे सैनिक एक ओर पत्थरबाजों और आतंकियों के निशाने पर हैं तो दूसरी ओर शासन-प्रशासन के। वे गोली चलाएं तो प्रदेश और देश का शासन उन्हें गरियाता है और न चलाएं तो पत्थर और गोलीबाज उनकी जान ले लें।

अब अहम सवाल यह है कि आखिर आतंकवादियों के मंसूबों पर पानी कैसे फेरा जाए। इसके लिए तो सबसे पहले देश के खुफिया तंत्र को मजबूत करने की दरकार है। इसके अलावा सुरक्षा-व्यवस्था को तो मजबूत करना ही होगा। अपने यहां हर आतंकी वारदात के बाद ठोस कदम उठाने का राग अलापा जाता है और कुछ दिन बाद सब लोग इस मसले पर खामोश हो जाते हैं और मौका पाते ही आतंकवादी फिर हमला करने में कामयाब हो जाते हैं। (15.12.2010)

Wednesday, December 15, 2010

सुरक्षा व्यवस्था तार तार



इश्वर चन्द्र उपाध्याय

पहले दशाश्वमेध घाट फिर बारी आयी संकट मोचन मंदिर और कैंट रेलवे स्टेशन की उसके बाद कचहरी ओर अब प्राचीन दशाश्वमेध यानी शीतला घाट बना पाक परस्त आतंकियों का निशाना। 2005 से अब तक 5 बड़ी आतंकी वारदात

रह रह कर तार तार हो जा रही है बनारस की सुरक्षा, काशी में सुरक्षा का ये हाल तब देखने को मिल रहा है जब ना सिर्फ प्रदेश में बल्की पूरे देश भर के अति संवेदनशील जिलों की सूची में इसका नाम दर्ज है, दूसरी तरफ तेज तर्रार अधिकारियों की पूरी मशीनरी दिनरात जनपद की जिम्मेदारी संभाले हुए है, भारी भरकम गुप्तचरों का अमला है, तो वहीं दिल्ली से भी लगातार खूफिया निगेहबानी की जद में रहता है बनारस। इतने ताम झाम के बावजूद इतनी बड़ी आंतंकी वारदात का घट जाना सचमुच सोचने पर मजबूर करता है।

6 दिसंबर को पूरे देश भर में जारी एलर्ट के अगले ही दिन वाराणसी के शीतला घाट का बम धमाके से दहल जाना सबको हैरत में डालने के लिए काफी था, घटना के अगले ही दिन देश के गृह मंत्री पी चिदंबरम साहब ने शीतला घाट का भी दौरा किया और पत्रकारों से बातचीत के दौरान बताया कि आई बी ने घाटों पर हमले को लेकर पहले ही एलर्ट जारी किया था।

अब जबकी शहरे बनारस में आतंकी विस्फोट की ये चौथी वारदात हो चुकी है और इस वारदात की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिद्दीन नामक आतंकी संगठन ने भी ले ली है तो सवाल ये उठता है कि सुरक्षा में हुई चूक की जिम्मेदारी कौन लेगा, ऐसे समय जब पाक के छद्म हमलावर पूरे देश को निगल जाने की फिराक में लगें हैं लखनउ और दिल्ली की इमारतों में रार ठनी हुई है।

बहरहाल शीतला घाट बम धमाके की फोरेसिक जाच शुरू हो चुकी है, और धमाके के बाद इससे जुड़ी तमाम तकनीकी बातें एक के बाद एक सामने आने लगेंगी...वहीं खूफिया विभाग की कसरतों के जरिये आतंकियों का पता भी लगाया जा सकता है लेकिन क्या कोई जिम्मेदार ये बताएगा कि आखिर कब तक आतंक के साये में जीते रहेंगे हम। क्या सरकारें आतंकी तांडवों के सामने मूक दर्शक ही बनी रहेंगी। और आखिर कब तक आतंक के विरूध्द लड़ाई को वोट बैंक के नफा नुकसानों से तौला जाएगा।

Wednesday, December 1, 2010

श्रीराम-जन्मभूमि पर उच्च न्यायालय के निर्णय का स्वरूप


चम्पतराय
(लेखक : विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महामंत्री हैं


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय विशेष पीठ अयोध्या से संबंधित मुकदमों को प्राथमिक स्तर पर सुन रही थी अर्थात अदालत ट्रायल कोर्ट के रूप में व्यवहार कर रही थी। इस कारण तीनों न्यायाधीशों ने अपना निर्णय अलग-अलग लिखा व सुनाया। सभी मुकदमों में निर्धारित किये गये सभी वाद-बिन्दुओं पर न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सकारात्मक अथवा नकारात्मक रूप में दिया है।

उच्च न्यायालय की विशेष पूर्ण पीठ के सभी न्यायमूर्ति गणों द्वारा विवादित स्थल पर भगवान श्रीराम का जन्म होना तथा विवादित स्थल को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि होना स्वीकार किया गया है। एक न्यायमूर्ति द्वारा सम्पूर्ण परिसर को एक इकाई मानते हुये ‘भगवान श्रीराम की जन्मभूमि’ की मान्यता दी गयी, जबकि दो अन्य न्यायमूर्ति द्वारा अंश भाग को जन्मस्थली के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। विस्तृत विवेचना के आधार पर न्यायालय द्वारा निर्मोही अखाड़ा का वाद तथा सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड व अन्य मुस्लिमों का वाद निरस्त कर दिया गया। भगवान रामलला व स्थान श्रीराम जन्मभूमि की ओर से प्रस्तुत वाद न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा द्वारा पूर्णतः तथा न्यायमूर्ति अग्रवाल व न्यायमूर्ति खान द्वारा आंशिक रूप में स्वीकार करते हुए प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई।


निर्णय के आधार
न्यायाधीशों को अपना निर्णय घोषित करने में आधार बने हैं- मुस्लिम धर्म ग्रन्थ, मुस्लिम वक्फ एक्ट, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, स्कन्द पुराण, मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखी गई पुस्तकें, फ्रांसीसी पादरी की डायरी, अंग्रेज अधिकारियों, इतिहासकारों द्वारा लिखित गजेटियर व ग्रन्थ, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, ढांचे से प्राप्त नक्काशीदार पत्थर तथा शिलालेख, राडार तरंगों से कराई गई भूगर्भ की फोटोग्राफी रिपोर्ट एवं रिपोर्ट के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये उत्खनन की रिपोर्ट एवं गवाहों के बयान।

रामलला क्यों जीते ?
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठित विग्रह जीवित है, वह अपना मुकदमा लड़ सकता है, वह एक विधिक प्राणी है, परन्तु अवयस्क है, उसे मुकदमा लड़ने के लिए कोई संरक्षक चाहिए। रामलला का मुकदमा संरक्षक के रूप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने दायर किया था। हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार सभी सम्पत्ति प्रधान देवता की होती है, उस पर किसी का विपरीत कब्जा नहीं हो सकता। हिन्दू परम्पराओं में विशेष महत्व का होने के कारण स्थान विशेष भी पूज्य है, देवता-तुल्य है, वह भी अपना मुकदमा कर सकता है। हिन्दू धर्मशास्त्र की यह व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। न्यायपालिका ने सदैव इन मान्यताओं को स्वीकार किया है।

निर्मोही अखाड़ा का वाद निरस्त क्यों हुआ ?
अदालत में निर्मोही अखाड़ा का मुख्य तर्क था कि विवादित स्थल, जो भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में हिन्दुओं द्वारा पूजित है, का स्वामी निर्मोही अखाड़ा है तथा रामचबूतरे वाला स्थान मन्दिर है जिसकी सेवा का अधिकार प्रारम्भ से ही अखाड़े के पास है। वे तीन गुम्बदों वाले ढांचे के अन्दर रखे भगवान की पूजा, व्यवस्था के लिए नियुक्त किये गये रिसीवर को हटाकर उसका प्रबन्धन स्वयं माँगते थे। उनका यह भी तर्क था कि सम्पूर्ण सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है और भगवान अखाड़े के अन्तर्गत हैं तथा अखाड़े का जन्म भगवान राम के जन्म से पहले हुआ। न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया कि वादी निर्मोही अखाड़ा रामानन्दी वैरागी सम्प्रदाय का एक पंचायती मठ है जो अयोध्या में 1734 ई. से स्थित है इसके पूर्व अयोध्या में इसके स्थापित होने का कोई प्रमाण नहीं है। निर्मोही अखाड़ा न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी है और न ही वाद प्रस्तुत करने का अधिकारी है। प्रस्तुत मुकदमा अवधि बाधित है। इन्हीं कारणों से अदालत ने निर्मोही अखाड़े का मुकदमा रद्द कर दिया।

सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद निरस्त क्यों हुआ ?
मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार केवल अपने पूर्ण वैधानिक मालिकाना हक वाली सम्पत्ति ही अल्लाह को समर्पित (वक्फ) की जा सकती है। बाबर भारत में युद्ध जीतने के बाद अधिक से अधिक लगान/टैक्स वसूल करने का अधिकारी था, धरती का मालिक कभी नहीं था। इस मुकदमे में यह स्पष्ट हो गया कि विवादित परिसर बाबर या मीरबाकी की सम्पत्ति नहीं था। अतः वह अल्लाह को समर्पित (वक्फ) भी नहीं हो सकता। वक्फ के लिए जो भी अधिसूचना जारी हुई; वह अप्रैल 1966 में न्यायालय द्वारा अवैध घोषित हो चुकी थी। उसे कभी किसी ने चुनौती नहीं दी। लम्बे समय का कब्जा मालिकाना हक नहीं दिलाता। यदि बहस के लिए यह मान भी लिया जाये कि 1528 से ही मुस्लिमों का इस स्थान पर कब्जा है तो वह कभी भी सतत व शान्तिपूर्ण नहीं रहा और वक्फ बोर्ड को यह भी बताना ही होगा कि बाबर ने किसकी सम्पत्ति पर कब्जा किया और क्या उनकी जानकारी में किया ?

मुस्लिम धर्मग्रन्थों के अनुसार विवादित भूमि पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह कबूल नहीं करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कथन है कि मस्जिद, इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले मैदान में भी। न्यायालय द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड को न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी माना गया और न ही प्रश्नगत ढांचे को इस्लाम के अनुसार सही माना गया। निर्धारित समयसीमा के अन्तर्गत दावा दायर न किये जाने के कारण बहुमत द्वारा वाद निरस्त कर दिया गया।

निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
वाद-बिन्दु : क्या वाद में लिखी गई सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है ? निष्कर्ष-नहीं। वाद-बिन्दु : बारह वर्ष से अधिक समय तक कब्जा रहने के कारण क्या निर्मोही अखाड़े का मालिकाना हक बनता है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़ा विवादित ढांचे वाले मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़े ने अपना वाद वैधानिक समय सीमा के अन्दर दायर किया ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या यह वाद जिस रूप में लिखा गया है उस रूप में वह स्वीकार किये जाने योग्य है ? निष्कर्ष- वाद जिस रूप में लिखा गया है; वह स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वाद-बिन्दु : क्या वादी निर्मोही अखाड़े को कोई राहत दी जा सकती है ? निष्कर्ष- वादी निर्मोही अखाड़ा किसी प्रकार की रियायत का हकदार नहीं है।

निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की नहीं है। बारह वर्ष के विपरीत कब्जे के आधार पर निर्मोही अखाड़े का सम्पत्ति पर हक नहीं बनता। निर्मोही अखाड़ा मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार नहीं है। निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद कालबाह्य है। यह वाद जिस रूप में लिखा गया है स्वीकार नहीं है। निर्मोही अखाड़ा रामानन्द सम्प्रदाय का पंचायती मठ है। निर्मोही अखाड़े को किसी प्रकार की राहत नहीं दी जा सकती। वाद रद्द किया जाता है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद मुस्लिम समाज के हितों को सुरक्षित रखने के लिए समाज के प्रतिनिधि के रूप में दायर किया गया। इसी प्रकार इस वाद के प्रतिवादीगण हिन्दू समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तीन गुम्बदों वाला विवादित ढांचा वर्ष 1949 के पहले मुस्लिमों के कब्जे में नहीं था। अतः यह कहना भी सही नहीं है कि 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः ढांचे के भीतर मूर्ति होने के बाद ही उनका कब्जा समाप्त हुआ।

1856-57 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा गुम्बद और रामचबूतरे के बीच में एक दीवार खड़ी कर दिए जाने के बाद रामचबूतरा और सीतारसोई वाले बाहरी आँगन में मुस्लिमों का कभी कोई अधिकार नहीं रहा। इसके विपरीत तीन गुम्बदों के ढाँचे वाले भीतरी आँगन का उपयोग हिन्दू और मुसलमान दोनों ही करते थे। सुन्नी मुस्लिम वक्फ एक्ट के विभिन्न प्रावधानों के बावजूद हिन्दू समाज को यह अधिकार था कि वह ढांचे को मस्जिद माने जाने के विरुद्ध चुनौती दे सके। वक्फ बोर्ड के प्रावधान न तो अन्तिम रूप से निर्णायक हैं और न ही हिन्दू समाज के अधिकारों को समाप्त करते हैं। ऐसा कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि 1885 ईस्वी में महंत रघुबर दास द्वारा दायर किया गया वाद जन्मस्थान के लिए था और निर्मोही अखाड़ा जन्मस्थान को प्राप्त करने में रूचि रखता है।

यह प्रमाणित नहीं है कि विवादित ढाँचा 1528 ईस्वी से लगातार, खुलेआम और सब हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए सदैव से मुस्लिमों के कब्जे में था। सुन्नी वक्फ बोर्ड को मुकदमें मे कोई राहत नहीं मिलेगी क्योंकि उनका मुकदमा रद्द किया जाता है। वर्ष 1936 में निर्मित उत्तर प्रदेश मुस्लिम वक्फ एक्ट के अनुसार, विवादित ढांचे के संबंध में कभी कोई वैध अधिसूचना जारी नहीं हुई। जो अधिसूचना जारी हुई थी वह अप्रैल 1966 में जिला अदालत द्वारा रद्द कर दी गई थी। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है।

यह निर्णित किया जाता है कि वह सम्पत्ति (परिसर) जिसे भगवान राम की जन्मभूमि माना जाता है वह रामलला विराजमान में निहित रहेगी। यह भी स्थापित किया जाता है कि विवादित ढाँचे के निर्माण के पहले से ही हिन्दू उस स्थान पर पूजा करता था। वर्ष 1950 में जब तीन गुम्बदों वाले विवादित ढांचे की दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 145 के अन्तर्गत कुर्की हुई; उस समय श्री जावेद हुसैन नाम के व्यक्ति वक्फ कहे जाने वाले उस ढांचे के मुतवल्ली (प्रबन्धक) थे, मुतवल्ली की अनुपस्थिति में अन्य किसी को वक्फ सम्पत्ति का कब्जा नहीं दिलाया जा सकता; क्योंकि वे वहाँ मात्र इबादत करने वाले लोग हैं। वादी सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड व अन्य वादीगण यह सिद्ध करने में असफल रहे कि बाहरी और ढाँचे सहित भीतरी आँगन वाला सम्पूर्ण विवादित परिसर उनके कब्जे में है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत ढाँचा जिसे मस्जिद कहा जाता है; वह मस्जिद नहीं था और उसे बाबर ने नहीं अपितु प्रतिवादियों के कथनानुसार मीरबाकी ने बनवाया था तथा उत्खनन रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जायेगा कि वह एक हिन्दू मंदिर को तोड़कर उसी स्थान पर बनाया गया था। यह भवन कभी अल्लाह को समर्पित नहीं हुआ और न ही इसमें अनादिकाल से नमाज पढ़ी गई और यह भी कहना गलत है कि 1949 के पहले यह भवन सुन्नी वक्फ बोर्ड या मुस्लिमों के कब्जे में था और 1949 के बाद ही उनका कब्जा हटा। विपरीत कब्जे के कारण वादी का अधिकार पूर्ण नहीं माना जा सकता। 1528 ईस्वी के बाद प्रश्नगत ढाँचा कभी भी लगातार और हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए मुस्लिमों के कब्जे में नहीं रहा। प्रश्नगत भवन को इस्लामिक कानून के आधार पर वैधानिक मस्जिद नहीं कहा जा सकता। मस्जिद सुन्नी मुस्लिम द्वारा नहीं बनाई गई। मुतवल्ली के द्वारा केस नहीं लड़ा गया। मुतवल्ली इस वाद में वादी नहीं है इसलिए यह वाद स्वीकार करने-योग्य नहीं है। मुस्लिम वक्फ एक्ट के आधार पर जारी की गई अधिसूचना वैध नहीं थी। उसे अप्रैल 1966 में सिविल जज फैजाबाद द्वारा रद्द किया जा चुका है और इस एक्ट का हिन्दुओं के द्वारा की जानेवाली पूजा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। मुस्लिमों का वाद क्रमांक 4 कालबाह्य है।

रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
निर्मोही अखाड़ा विवादित ढाँचे के भीतर विराजमान भगवान रामलला की सेवा, पूजा का अधिकारी नहीं है। विवादित ढांचा जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता है; वह बाबरी मस्जिद नहीं है। विवादित ढाँचे को मस्जिद के रूप में घोषित किए जाने के लिए कोई वैध वक्फ निर्मित नहीं हुआ। विवादित ढाँचा जिसे बाबरी मस्जिद के रूप में जाना जाता है, वह जन्मस्थान-मंदिर को तोड़कर बनाया गया। यह सही है कि ईस्वी सन् 1860 के पश्चात् मुस्लिम इस परिसर के भीतरी आँगन में आते थे, नमाज पढ़ते थे। आखिरी नमाज 16 दिसम्बर 1949 को पढ़ी गई।

वादी रामलला विराजमान एवं स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वाद-मित्र के द्वारा वाद दायर किये जाने का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। वाद-मित्र रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि की ओर से वाद दायर कर सकते हैं। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया और यही विग्रह आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर के नीचे स्थापित है और ये विग्रह प्राणप्रतिष्ठित हैं। विवादित सम्पत्ति वाद-पत्र में ठीक प्रकार से लिखी और चिह्नित की गई है। वादी रामलला विराजमान और वादी स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का अधिकार कभी समाप्त नहीं हुआ और इसलिए अधिकार पुनः प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रीराम जन्मभूमि न्यास के बारे में उत्तर देना अनावश्यक है। यह निश्चित किया जाता है कि हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार और जैसा कि वे पूजा करते चले आ रहे हैं, तीन गुम्बदों वाले ढाँचे में बीच वाले गुम्बद का स्थान ही भगवान राम का जन्मस्थान है।

महंत रघुबरदास द्वारा दायर किये गये मुकदमे में 1885 ईस्वी में अदालत का निर्णय वर्तमान वाद के विचार के लिए बाधक नहीं है। वादी रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से हो रही है। वाद कालबाह्य नहीं है। रामलला का वाद आंशिक रूप से स्वीकार्य है।

रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत ढाँचा मस्जिद नहीं था। वह मस्जिद नहीं माना जा सकता। वह जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर उसी के ऊपर बनाया गया था। 1528 से 1949 तक इस स्थान का उपयोग नमाज पढ़ने के लिए सदैव नहीं किया गया। ढाँचे को मस्जिद के रूप में माने जाने के लिए कोई वैध वक्फ नहीं बना। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है। यह कहना गलत है कि निर्मोही अखाड़ा ही केवल रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व करता है। विवादित भवन के भीतर विराजमान रामलला की पूजा का अधिकार निर्मोही अखाड़े का नहीं है।

रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वे वाद-मित्र के माध्यम से अपना मुकदमा लड़ सकते हैं। वाद-मित्र वादी के रूप में रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व अदालत में कर सकते हैं। विवादित परिसर ही हिन्दुओं की परम्पराओं, विश्वास और आस्था के आधार पर श्रीरामलला विराजमान का जन्मस्थान है। परिसर में रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से होती चली आ रही है। प्रस्तुत वाद में प्रश्नगत सम्पत्ति का प्रस्तुतीकरण ठीक ढँग से किया गया है। श्रीराम जन्मभूमि न्यास एक वैधानिक न्यास है। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रामलला मध्य गुम्बद के नीचे स्थापित किये गये और वह विग्रह ही आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर में विराजमान हैं और यह विग्रह प्राण-प्रतिष्ठित है। रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि के वाद में माँगी गई राहत ग्राह्य है।


न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निर्णय का सारांश
01. हिन्दुओं की आस्था और विश्वास के आधार पर विवादित भवन के बीच वाले गुम्बद के नीचे का भाग ही भगवान राम की जन्मभूमि है।
02. विवादित भवन सदैव से एक मस्जिद माना जाता रहा और मुस्लिम उसी रूप में उसमें इबादत करते रहे। यद्यपि यह सिद्ध नहीं किया जा सका कि 1528 ईस्वी में बाबर के समय में इसे बनाया गया। वाद में लिखे गये तर्कों और दस्तावेजों के अतिरिक्त यह कहना कठिन है कि कब और किसके द्वारा इस विवादित भवन का निर्माण किया गया। परन्तु यह स्पष्ट है कि इस विवादित परिसर का निर्माण ईस्वी सन् 1766 से 1771 के बीच अवध में फ्रांसीसी पादरी टाइफैनथैलर के आगमन के पहले हुआ। विवादित परिसर का निर्माण एक गैरइस्लामिक, धार्मिक भवन अर्थात् हिन्दू मंदिर को गिराने के पश्चात् किया गया।
03. रामलला का विग्रह विवादित ढाँचे के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखा गया।
04. निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद वैधानिक समयसीमा के पश्चात् दायर किये गये, इसलिए रद्द किये जाते हैं।

न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निर्णय का सारांश
01. विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है। स्थान श्रीराम-जन्मभूमि एक विधिकप्राणी है और देवता है। दैवीय भाव से युक्त है और एक बालक के रूप में रामलला का जन्मस्थान होने के कारण पूजित है। दिव्यता का भाव सदैव रहता है, सब स्थानों पर रहता है, हर समय रहता है, सबके लिए रहता है और अपने-अपने हृदय में होनेवाली अनुभूति के अनुसार यह देवत्व निराकार अथवा अन्य किसी भी आकार का हो सकता है।

02. विवादित भवन बाबर द्वारा बनवाया गया। निर्माण का वर्ष निश्चित नहीं है; परन्तु यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना; अतः मस्जिद का स्वरूप नहीं ले सकता। यह भवन एक पुराने भवन को गिराकर उसी स्थान पर बनाया गया। पुरातत्व विभाग ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह पुराना भवन एक विशाल हिन्दू धार्मिक भवन था।

03. मूर्तियां विवादित भवन के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखी गईं।
04. यह सिद्ध है कि विवादित सम्पत्ति भगवान राम की जन्मभूमि है और सर्वसामान्य हिन्दुओं को यह अधिकार है कि वह चरणपादुका, सीतारसोई और उस स्थान पर रखी हुई अन्य पूजा-योग्य वस्तुओं की पूजा करें। यह भी सिद्ध है कि हिन्दू विवादित स्थान को जन्मस्थान के रूप में पूजते चले आ रहे हैं अर्थात् जन्मभूमि एक देवता है और अनादिकाल से भक्त इसे पवित्र स्थान मानकर दर्शन करने आते रहे हैं। विवादित भवन के निर्माण के पश्चात् 23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में मूर्तियाँ वहाँ रखी गईं; यह सिद्ध है। यह भी सिद्ध है कि विवादित परिसर का बाहरी भाग (बाहरी आँगन जिसमें राम चबूतरा, सीतारसोई व चरणचिह्न थे) सदैव से केवल हिन्दुओं के कब्जे में रहा और वे सदैव इसकी पूजा करते रहे और भीतरी भाग (भीतरी आँगन जिसमें तीन गुम्बदों वाला ढाँचा था, उसमें भी वे पूजा करते रहे) यह भी प्रमाणित है कि यह विवादित भवन मस्जिद नहीं माना जा सकता; क्योंकि यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना।
05. सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद तथा निर्मोही अखाड़े का वाद वैधानिक समय-सीमा के बाद दायर किये गये, अतः निरस्त किये जाते हैं।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान के निर्णय का सारांश
01. विवादित ढाँचा बाबर के आदेश से मस्जिद के रूप में बनवाया गया; परन्तु यह प्रमाणित नहीं हो सका कि निर्मित भवन सहित सम्पूर्ण विवादित परिसम्पत्ति बाबर की या मस्जिद को बनाने वाले की या जिसके आदेश से इसे बनाया गया उसकी सम्पत्ति है।

02. मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मंदिर को नहीं तोड़ा गया; परन्तु मस्जिद किसी मंदिर के खण्डहर पर बनाई गई; जो खण्डहर धरती के नीचे मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से दबे पड़े थे और उसी खण्डहर की कुछ सामग्री मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई। मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से ही हिन्दू मानते थे तथा उनका विश्वास था कि इस बहुत विशाल भूखण्ड में कहीं भगवान राम का जन्मस्थान स्थित है। विवादित परिसर इस विशाल भूखण्ड का एक छोटा सा ही हिस्सा है। हिन्दू समाज का यह विश्वास किसी स्थान विशेष को चिह्नित नहीं करता, जिसके मध्य यह विवादित परिसर भी आ जाये। मस्जिद के बन जाने के पश्चात् से ही हिन्दू इसी विवादित परिसर को राम की जन्मभूमि के रूप में पहचानने लगे।

03. 1855 ईस्वी के बहुत पहले ही रामचबूतरा और सीतारसोई थी और हिन्दू उसकी पूजा करते थे। यह अपने में बहुत अद्वितीय और दुर्लभ अवस्था है कि मस्जिद की चारदीवारी के भीतर एक हिन्दू धार्मिक स्थान भी है; जिसमें हिन्दू पूजा करते हैं और मस्जिद में मुसलमान नमाज भी पढ़ते हैं। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही इस संपूर्ण विवादित परिसर का सामूहिक भागीदार माना जायेगा। यद्यपि हिन्दू और मुसलमान परिसर के अलग-अलग हिस्सों को उपयोग कर रहे थे और वे अलग-अलग हिस्से उनके कब्जे में भी थे, तो भी इससे परिसर का बंटवारा नहीं हुआ और संपूर्ण परिसर दोनों के ही सामूहिक कब्जे में बना रहा। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही पक्ष अपने मालिकाना हक को सिद्ध करने में असफल रहे; अतः दोनों का सामूहिक कब्जा होने के कारण दोनों का ही मालिकाना हक माना जायेगा। इसलिए दोनों पक्ष ही सामूहिक कब्जे के आधार पर सम्पत्ति के सामूहिक मालिक घोषित किये जाते हैं। एक प्राथमिक डिक्री इस शर्त के साथ जारी की जाती है कि वास्तविक बँटवारे के समय बीच वाले गुम्बद का स्थान हिन्दू को दिया जायेगा; जहाँ आज रामलला विराजमान हैं।

04. 1949 के कुछ दशकों पूर्व से ही हिन्दुओं ने यह मानना और विश्वास करना प्रारंभ कर दिया कि तीन गुम्बदों वाले ढांचे में मध्य गुम्बद का भाग ही भगवान राम की ठीक-ठीक जन्मभूमि है और उसी स्थान पर आज कपड़े का अस्थाई मंदिर बना है। इसी स्थान पर 23 दिसम्बर 1949 के अतिप्रातः मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया।
विशेष :- न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने किसी भी वाद को कालबाह्य मानकर अथवा अन्य किसी कारण से भी निरस्त नहीं किया।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान द्वारा पारित आदेश
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह आदेश दिया जाता है कि मुस्लिम, हिन्दू और निर्मोही अखाड़ा तीनों ही विवादित सम्पत्ति (वर्ष 1950 में श्री शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा तैयार किये गये मानचित्र में जिसे ए, बी, सी, डी, ई, एफ से दर्शाया गया है और यह मानचित्र जनवरी 1950 में गोपाल सिंह विशारद द्वारा दायर किये गये वाद में नत्थी है) के संयुक्त स्वामी घोषित किये जाते हैं और तीनों को ही इस परिसर का 1/3 भाग प्रत्येक को उनकी पूजा और प्रबन्धन के लिए दिया जायेगा। तदनुसार प्रारम्भिक डिक्री इस आशय के साथ पारित की जाती है कि वास्तविक बँटवारे में मध्य गुम्बद के नीचे का अंश जहाँ वर्तमान में भगवान रामलला विराजमान हैं, हिन्दुओं को दिया जायेगा तथा वास्तविक बँटवारे में रामचबूतरे को परिसर का वह भाग अवश्य दिया जायेगा जो भाग शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा बनाये गये मानचित्र में रामचबूतरा और सीतारसोई के नाम से दर्शाये गये हैं। यह भी स्पष्ट किया जाता है कि तीनों पक्षकारों को परिसर का 1/3-1/3 भाग बराबर-बराबर देने की घोषणा की गई है, अतः यदि वास्तविक बँटवारे के समय कुछ समन्वय, समायोजन की आवश्यकता पड़ती है; तो वह किया जाये और प्रभावित पक्ष को आस-पास की उस भूमि का (जो आज भारत सरकार के अधिकार में है) कुछ भाग देकर क्षतिपूर्ति की जाये; ताकि तीनों पक्षकारों को समान भूमि प्राप्त हो।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने अपने आदेश में लिखा है कि जिन वाद-बिन्दुओं पर मैंने अपने निष्कर्ष नहीं लिखे हैं; उन सभी वाद-बिन्दुओं पर मेरी सहमति सहयोगी न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षों से है।


क्या हिन्दू समाज मस्जिद का विरोधी है ?
हिन्दू समाज न तो मुस्लिम समाज का विरोधी है और न ही मस्जिद का विरोधी है। वर्ष 1992 में नवम्बर मास के अन्तिम सप्ताह में तथा दिसम्बर के पहले सप्ताह में अयोध्या में सम्पूर्ण भारत से आये कई लाख रामभक्त (कारसेवक) एकत्र थे। अयोध्या में 15 से भी अधिक मस्जिदें अभी भी हैं; परन्तु किसी भी मस्जिद को कारसेवकों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या में कई हजार मुस्लिम आबादी है। किसी मुस्लिम को पूरे देश से आये रामभक्तों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या, फैजाबाद अथवा मार्ग में भी किसी दुकानदार को पीड़ित नहीं किया। किसी महिला से अभद्र व्यवहार नहीं हुआ। साधु-सन्तों ने दिल्ली में सम्पन्न हुई धर्मसंसद में सार्वजनिक घोषणा की थी कि 6 दिसम्बर 1992 को प्रातः 11.45 बजे अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर-निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे। सभी ने इस दिनांक व समय का पालन किया। निर्धारित समय के पूर्व किसी ने भी ढाँचे को स्पर्श नहीं किया। वे पूर्ण अनुशासित थे। वे एक बड़ा लक्ष्य अपने हृदय में सँजोकर अयोध्या आये थे। उन्हें केवल श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े तीन गुम्बदों वाले उस ढाँचे से सरोकार था; जिसे हिन्दू समाज 464 साल से गुलामी का कलंक मानता था और स्वाभिमानी भारत उस कलंक को मिटा देना चाहता था। वह ढाँचा धार्मिक उपासना-स्थल के रूप में नहीं बनाया गया था; अपितु भारत पर इस्लाम की विजय के प्रतीक के रूप में हिन्दू समाज के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर खड़े मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। इस ढाँचे को हटा दिया गया; तो यह उसी प्रकार उचित रहा जैसे दिल्ली में इण्डिया गेट के नीचे खड़ी किसी अंग्रेज की मूर्ति की किसी देशभक्त ने नाक तोड़ दी; तो भारत सरकार ने उसे सम्मानपूर्वक हटवाकर कहीं रख दिया। उसकी कोई आलोचना नहीं करता; क्योंकि वह प्रतिमा भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य की याद दिलाती थी।

प्रतिवादियों को भी जाने
यह समझना आवश्यक है कि श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी और राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (जिसका गठन जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारिकापीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज द्वारा हुआ) का स्वतंत्र रूप से कोई मुकदमा नहीं है। उन्हें केवल अन्य हिन्दू पक्षकारों के समान प्रतिवादी के रूप में पक्षकार बनाया गया है। इनके द्वारा किसी दावे में कोई प्रतिदावा भी प्रस्तुत नहीं किया गया। इस कारण न्यायालय इनके पक्ष में कोई आदेश अलग से देने की स्थिति में नहीं है। श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी व श्री मदनमोहन गुप्ता- संयोजक राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति, दोनों ही सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे में स्वयं अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने। श्रीमहंत धर्मदास पहलवान भी अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने थे। परमहंस रामचन्द्र दास जी, हिन्दू महासभा दोनों को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने प्रतिवादी बनाया। परमहंस जी के साकेतवासी हो जाने के कारण उनके शिष्य महंत सुरेशदास प्रतिवादी बने। निर्णय प्रतिवादियों के पक्ष में नहीं होगा; अपितु वादी निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड अथवा रामलला विराजमान आदि में से किसी एक के पक्ष में होगा। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे अदालत ने रद्द कर दिये हैं। रामलला विराजमान का वाद स्वीकार हुआ है। हाशिम अंसारी मुस्लिमों के वाद में कुल 10 वादियों में से मात्र एक वादी हैं जिनका अपना स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं है।

मुकदमों की पैरवी करने वाले अधिवक्ताओं का विवरण ?
गोपाल सिंह विशारद के मुकदमे की पैरवी लखनऊ के श्री पुत्तुलाल मिश्रा अधिवक्ता करते थे, उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ के ही एक युवा अधिवक्ता श्री देवेन्द्र प्रसाद गुप्ता उसकी पैरवी करने लगे। अन्त में श्री अजय पाण्डेय अधिवक्ता ने उनकी ओर से अदालत के सामने एक दिन बहस भी की।

निर्मोही अखाड़े की ओर से अयोध्या निवासी अधिवक्ता श्री रणजीत लाल वर्मा पैरवी करते थे। वे नित्य अदालत में आते भी थे। उन्होंने ही अदालत में जिरह/बहस भी की। उनकी अनुपस्थिति में उनके पुत्र श्री तरुणजीत वर्मा अदालत में उपस्थित रहते थे।

सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से श्री जफरयाब जिलानी एवं श्री मुश्ताक अहमद सिद्दीकी एवं अन्य तीन-चार अधिवक्ताओं की टोली पैरवी करती थी। श्री अब्दुल मन्नान भी इस मुकदमे में पैरवी करते थे, वे बहुत बुर्जुग थे, उनका देहावसान हो गया। प्रसिद्ध विधिवेत्ता श्री सिद्धार्थ शंकर रे (बंगाल), जफरयाब जिलानी और मुश्ताक अहमद सिद्दीकी ने जिरह/बहस की।

रामलला विराजमान की ओर से श्री वेदप्रकाश निगम अधिवक्ता पैरवी करते थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के.एन. भट्ट ने रामलला विराजमान की ओर से अदालत में बहस की।

प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज (वर्तमान में महंत सुरेश दास जी दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या) की ओर से फैजाबाद निवासी श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता गत 17 वर्षों से पैरवी कर रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने बहस की, उनका सहयोग सर्वोच्च न्यायालय के ही अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रमजीत बनर्जी, सौरभ शमशेरी एवं भक्तिवर्धन सिंह ने किया।

श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता ने रामलला विराजमान एवं प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास दोनों की ओर से पुरातत्व की रिपोर्ट पर एवं गवाहों के बयान तथा दस्तावेजों पर बहस की।

प्रतिवादी बाबा अभिराम दास (वर्तमान में श्रीमहंत धर्मदास जी) की पैरवी फैजाबाद निवासी अधिवक्ता श्री वीरेश्वर द्विवेदी करते थे। उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ निवासी श्री राकेश पाण्डे अधिवक्ता ने उनकी पैरवी की, (श्री राकेश पाण्डे के पूज्य पिताजी श्री के.एम. पाण्डेय ने जिला न्यायाधीश के रूप में ही श्री राम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने का आदेश दिया था)। मद्रास हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने श्रीमहंत धर्मदास जी की ओर से अदालत में बहस की।

प्रतिवादी श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज द्वारा गठित) की ओर से कुमारी रंजना अग्निहोत्री अधिवक्ता उपस्थित रहती थीं। बहस कलकत्ता हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एन. मिश्रा ने की। प्रतिवादी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की ओर से जिरह/बहस अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन (लखनऊ) ने की। प्रतिवादी रमेशचन्द्र त्रिपाठी की ओर से कोई अधिवक्ता प्रस्तुत नहीं हुआ; परन्तु किसी के बहकावे में आकर निर्णय टलवाने के लिए अदालत में अवश्य चले गये।

श्रीराम-जन्मभूमि पर उच्च न्यायालय के निर्णय का स्वरूप


चम्पतराय


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय विशेष पीठ अयोध्या से संबंधित मुकदमों को प्राथमिक स्तर पर सुन रही थी अर्थात अदालत ट्रायल कोर्ट के रूप में व्यवहार कर रही थी। इस कारण तीनों न्यायाधीशों ने अपना निर्णय अलग-अलग लिखा व सुनाया। सभी मुकदमों में निर्धारित किये गये सभी वाद-बिन्दुओं पर न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सकारात्मक अथवा नकारात्मक रूप में दिया है।

उच्च न्यायालय की विशेष पूर्ण पीठ के सभी न्यायमूर्ति गणों द्वारा विवादित स्थल पर भगवान श्रीराम का जन्म होना तथा विवादित स्थल को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि होना स्वीकार किया गया है। एक न्यायमूर्ति द्वारा सम्पूर्ण परिसर को एक इकाई मानते हुये ‘भगवान श्रीराम की जन्मभूमि’ की मान्यता दी गयी, जबकि दो अन्य न्यायमूर्ति द्वारा अंश भाग को जन्मस्थली के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। विस्तृत विवेचना के आधार पर न्यायालय द्वारा निर्मोही अखाड़ा का वाद तथा सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड व अन्य मुस्लिमों का वाद निरस्त कर दिया गया। भगवान रामलला व स्थान श्रीराम जन्मभूमि की ओर से प्रस्तुत वाद न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा द्वारा पूर्णतः तथा न्यायमूर्ति अग्रवाल व न्यायमूर्ति खान द्वारा आंशिक रूप में स्वीकार करते हुए प्रारम्भिक डिक्री पारित की गई।

निर्णय के आधार
न्यायाधीशों को अपना निर्णय घोषित करने में आधार बने हैं- मुस्लिम धर्म ग्रन्थ, मुस्लिम वक्फ एक्ट, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, स्कन्द पुराण, मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखी गई पुस्तकें, फ्रांसीसी पादरी की डायरी, अंग्रेज अधिकारियों, इतिहासकारों द्वारा लिखित गजेटियर व ग्रन्थ, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, ढांचे से प्राप्त नक्काशीदार पत्थर तथा शिलालेख, राडार तरंगों से कराई गई भूगर्भ की फोटोग्राफी रिपोर्ट एवं रिपोर्ट के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये उत्खनन की रिपोर्ट एवं गवाहों के बयान।

रामलला क्यों जीते ?
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठित विग्रह जीवित है, वह अपना मुकदमा लड़ सकता है, वह एक विधिक प्राणी है, परन्तु अवयस्क है, उसे मुकदमा लड़ने के लिए कोई संरक्षक चाहिए। रामलला का मुकदमा संरक्षक के रूप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने दायर किया था। हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार सभी सम्पत्ति प्रधान देवता की होती है, उस पर किसी का विपरीत कब्जा नहीं हो सकता। हिन्दू परम्पराओं में विशेष महत्व का होने के कारण स्थान विशेष भी पूज्य है, देवता-तुल्य है, वह भी अपना मुकदमा कर सकता है। हिन्दू धर्मशास्त्र की यह व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। न्यायपालिका ने सदैव इन मान्यताओं को स्वीकार किया है।

निर्मोही अखाड़ा का वाद निरस्त क्यों हुआ ?
अदालत में निर्मोही अखाड़ा का मुख्य तर्क था कि विवादित स्थल, जो भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में हिन्दुओं द्वारा पूजित है, का स्वामी निर्मोही अखाड़ा है तथा रामचबूतरे वाला स्थान मन्दिर है जिसकी सेवा का अधिकार प्रारम्भ से ही अखाड़े के पास है। वे तीन गुम्बदों वाले ढांचे के अन्दर रखे भगवान की पूजा, व्यवस्था के लिए नियुक्त किये गये रिसीवर को हटाकर उसका प्रबन्धन स्वयं माँगते थे। उनका यह भी तर्क था कि सम्पूर्ण सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है और भगवान अखाड़े के अन्तर्गत हैं तथा अखाड़े का जन्म भगवान राम के जन्म से पहले हुआ। न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया कि वादी निर्मोही अखाड़ा रामानन्दी वैरागी सम्प्रदाय का एक पंचायती मठ है जो अयोध्या में 1734 ई. से स्थित है इसके पूर्व अयोध्या में इसके स्थापित होने का कोई प्रमाण नहीं है। निर्मोही अखाड़ा न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी है और न ही वाद प्रस्तुत करने का अधिकारी है। प्रस्तुत मुकदमा अवधि बाधित है। इन्हीं कारणों से अदालत ने निर्मोही अखाड़े का मुकदमा रद्द कर दिया।

सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद निरस्त क्यों हुआ ?
मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार केवल अपने पूर्ण वैधानिक मालिकाना हक वाली सम्पत्ति ही अल्लाह को समर्पित (वक्फ) की जा सकती है। बाबर भारत में युद्ध जीतने के बाद अधिक से अधिक लगान/टैक्स वसूल करने का अधिकारी था, धरती का मालिक कभी नहीं था। इस मुकदमे में यह स्पष्ट हो गया कि विवादित परिसर बाबर या मीरबाकी की सम्पत्ति नहीं था। अतः वह अल्लाह को समर्पित (वक्फ) भी नहीं हो सकता। वक्फ के लिए जो भी अधिसूचना जारी हुई; वह अप्रैल 1966 में न्यायालय द्वारा अवैध घोषित हो चुकी थी। उसे कभी किसी ने चुनौती नहीं दी। लम्बे समय का कब्जा मालिकाना हक नहीं दिलाता। यदि बहस के लिए यह मान भी लिया जाये कि 1528 से ही मुस्लिमों का इस स्थान पर कब्जा है तो वह कभी भी सतत व शान्तिपूर्ण नहीं रहा और वक्फ बोर्ड को यह भी बताना ही होगा कि बाबर ने किसकी सम्पत्ति पर कब्जा किया और क्या उनकी जानकारी में किया ?

मुस्लिम धर्मग्रन्थों के अनुसार विवादित भूमि पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह कबूल नहीं करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कथन है कि मस्जिद, इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले मैदान में भी। न्यायालय द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड को न तो विवादित सम्पत्ति का स्वामी माना गया और न ही प्रश्नगत ढांचे को इस्लाम के अनुसार सही माना गया। निर्धारित समयसीमा के अन्तर्गत दावा दायर न किये जाने के कारण बहुमत द्वारा वाद निरस्त कर दिया गया।

निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
वाद-बिन्दु : क्या वाद में लिखी गई सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की है ? निष्कर्ष-नहीं। वाद-बिन्दु : बारह वर्ष से अधिक समय तक कब्जा रहने के कारण क्या निर्मोही अखाड़े का मालिकाना हक बनता है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़ा विवादित ढांचे वाले मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार है ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या निर्मोही अखाड़े ने अपना वाद वैधानिक समय सीमा के अन्दर दायर किया ? निष्कर्ष- नहीं। वाद-बिन्दु : क्या यह वाद जिस रूप में लिखा गया है उस रूप में वह स्वीकार किये जाने योग्य है ? निष्कर्ष- वाद जिस रूप में लिखा गया है; वह स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वाद-बिन्दु : क्या वादी निर्मोही अखाड़े को कोई राहत दी जा सकती है ? निष्कर्ष- वादी निर्मोही अखाड़ा किसी प्रकार की रियायत का हकदार नहीं है।

निर्मोही अखाड़ा के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत सम्पत्ति निर्मोही अखाड़े की नहीं है। बारह वर्ष के विपरीत कब्जे के आधार पर निर्मोही अखाड़े का सम्पत्ति पर हक नहीं बनता। निर्मोही अखाड़ा मंदिर का प्रबन्धन प्राप्त करने का हकदार नहीं है। निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद कालबाह्य है। यह वाद जिस रूप में लिखा गया है स्वीकार नहीं है। निर्मोही अखाड़ा रामानन्द सम्प्रदाय का पंचायती मठ है। निर्मोही अखाड़े को किसी प्रकार की राहत नहीं दी जा सकती। वाद रद्द किया जाता है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद मुस्लिम समाज के हितों को सुरक्षित रखने के लिए समाज के प्रतिनिधि के रूप में दायर किया गया। इसी प्रकार इस वाद के प्रतिवादीगण हिन्दू समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तीन गुम्बदों वाला विवादित ढांचा वर्ष 1949 के पहले मुस्लिमों के कब्जे में नहीं था। अतः यह कहना भी सही नहीं है कि 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः ढांचे के भीतर मूर्ति होने के बाद ही उनका कब्जा समाप्त हुआ।

1856-57 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा गुम्बद और रामचबूतरे के बीच में एक दीवार खड़ी कर दिए जाने के बाद रामचबूतरा और सीतारसोई वाले बाहरी आँगन में मुस्लिमों का कभी कोई अधिकार नहीं रहा। इसके विपरीत तीन गुम्बदों के ढाँचे वाले भीतरी आँगन का उपयोग हिन्दू और मुसलमान दोनों ही करते थे। सुन्नी मुस्लिम वक्फ एक्ट के विभिन्न प्रावधानों के बावजूद हिन्दू समाज को यह अधिकार था कि वह ढांचे को मस्जिद माने जाने के विरुद्ध चुनौती दे सके। वक्फ बोर्ड के प्रावधान न तो अन्तिम रूप से निर्णायक हैं और न ही हिन्दू समाज के अधिकारों को समाप्त करते हैं। ऐसा कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि 1885 ईस्वी में महंत रघुबर दास द्वारा दायर किया गया वाद जन्मस्थान के लिए था और निर्मोही अखाड़ा जन्मस्थान को प्राप्त करने में रूचि रखता है।

यह प्रमाणित नहीं है कि विवादित ढाँचा 1528 ईस्वी से लगातार, खुलेआम और सब हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए सदैव से मुस्लिमों के कब्जे में था। सुन्नी वक्फ बोर्ड को मुकदमें मे कोई राहत नहीं मिलेगी क्योंकि उनका मुकदमा रद्द किया जाता है। वर्ष 1936 में निर्मित उत्तर प्रदेश मुस्लिम वक्फ एक्ट के अनुसार, विवादित ढांचे के संबंध में कभी कोई वैध अधिसूचना जारी नहीं हुई। जो अधिसूचना जारी हुई थी वह अप्रैल 1966 में जिला अदालत द्वारा रद्द कर दी गई थी। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है।

यह निर्णित किया जाता है कि वह सम्पत्ति (परिसर) जिसे भगवान राम की जन्मभूमि माना जाता है वह रामलला विराजमान में निहित रहेगी। यह भी स्थापित किया जाता है कि विवादित ढाँचे के निर्माण के पहले से ही हिन्दू उस स्थान पर पूजा करता था। वर्ष 1950 में जब तीन गुम्बदों वाले विवादित ढांचे की दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 145 के अन्तर्गत कुर्की हुई; उस समय श्री जावेद हुसैन नाम के व्यक्ति वक्फ कहे जाने वाले उस ढांचे के मुतवल्ली (प्रबन्धक) थे, मुतवल्ली की अनुपस्थिति में अन्य किसी को वक्फ सम्पत्ति का कब्जा नहीं दिलाया जा सकता; क्योंकि वे वहाँ मात्र इबादत करने वाले लोग हैं। वादी सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड व अन्य वादीगण यह सिद्ध करने में असफल रहे कि बाहरी और ढाँचे सहित भीतरी आँगन वाला सम्पूर्ण विवादित परिसर उनके कब्जे में है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत ढाँचा जिसे मस्जिद कहा जाता है; वह मस्जिद नहीं था और उसे बाबर ने नहीं अपितु प्रतिवादियों के कथनानुसार मीरबाकी ने बनवाया था तथा उत्खनन रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जायेगा कि वह एक हिन्दू मंदिर को तोड़कर उसी स्थान पर बनाया गया था। यह भवन कभी अल्लाह को समर्पित नहीं हुआ और न ही इसमें अनादिकाल से नमाज पढ़ी गई और यह भी कहना गलत है कि 1949 के पहले यह भवन सुन्नी वक्फ बोर्ड या मुस्लिमों के कब्जे में था और 1949 के बाद ही उनका कब्जा हटा। विपरीत कब्जे के कारण वादी का अधिकार पूर्ण नहीं माना जा सकता। 1528 ईस्वी के बाद प्रश्नगत ढाँचा कभी भी लगातार और हिन्दुओं की जानकारी में रहते हुए मुस्लिमों के कब्जे में नहीं रहा। प्रश्नगत भवन को इस्लामिक कानून के आधार पर वैधानिक मस्जिद नहीं कहा जा सकता। मस्जिद सुन्नी मुस्लिम द्वारा नहीं बनाई गई। मुतवल्ली के द्वारा केस नहीं लड़ा गया। मुतवल्ली इस वाद में वादी नहीं है इसलिए यह वाद स्वीकार करने-योग्य नहीं है। मुस्लिम वक्फ एक्ट के आधार पर जारी की गई अधिसूचना वैध नहीं थी। उसे अप्रैल 1966 में सिविल जज फैजाबाद द्वारा रद्द किया जा चुका है और इस एक्ट का हिन्दुओं के द्वारा की जानेवाली पूजा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। मुस्लिमों का वाद क्रमांक 4 कालबाह्य है।

रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष
निर्मोही अखाड़ा विवादित ढाँचे के भीतर विराजमान भगवान रामलला की सेवा, पूजा का अधिकारी नहीं है। विवादित ढांचा जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता है; वह बाबरी मस्जिद नहीं है। विवादित ढाँचे को मस्जिद के रूप में घोषित किए जाने के लिए कोई वैध वक्फ निर्मित नहीं हुआ। विवादित ढाँचा जिसे बाबरी मस्जिद के रूप में जाना जाता है, वह जन्मस्थान-मंदिर को तोड़कर बनाया गया। यह सही है कि ईस्वी सन् 1860 के पश्चात् मुस्लिम इस परिसर के भीतरी आँगन में आते थे, नमाज पढ़ते थे। आखिरी नमाज 16 दिसम्बर 1949 को पढ़ी गई।

वादी रामलला विराजमान एवं स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वाद-मित्र के द्वारा वाद दायर किये जाने का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। वाद-मित्र रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि की ओर से वाद दायर कर सकते हैं। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया और यही विग्रह आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर के नीचे स्थापित है और ये विग्रह प्राणप्रतिष्ठित हैं। विवादित सम्पत्ति वाद-पत्र में ठीक प्रकार से लिखी और चिह्नित की गई है। वादी रामलला विराजमान और वादी स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का अधिकार कभी समाप्त नहीं हुआ और इसलिए अधिकार पुनः प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता। श्रीराम जन्मभूमि न्यास के बारे में उत्तर देना अनावश्यक है। यह निश्चित किया जाता है कि हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार और जैसा कि वे पूजा करते चले आ रहे हैं, तीन गुम्बदों वाले ढाँचे में बीच वाले गुम्बद का स्थान ही भगवान राम का जन्मस्थान है।

महंत रघुबरदास द्वारा दायर किये गये मुकदमे में 1885 ईस्वी में अदालत का निर्णय वर्तमान वाद के विचार के लिए बाधक नहीं है। वादी रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से हो रही है। वाद कालबाह्य नहीं है। रामलला का वाद आंशिक रूप से स्वीकार्य है।

रामलला के वाद में कुछ वाद-बिन्दुओं पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निष्कर्ष
प्रश्नगत ढाँचा मस्जिद नहीं था। वह मस्जिद नहीं माना जा सकता। वह जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर उसी के ऊपर बनाया गया था। 1528 से 1949 तक इस स्थान का उपयोग नमाज पढ़ने के लिए सदैव नहीं किया गया। ढाँचे को मस्जिद के रूप में माने जाने के लिए कोई वैध वक्फ नहीं बना। विवादित स्थल नजूल गाटा संख्या 583 पर स्थित है; जो राज्य सरकार की सम्पत्ति है। यह कहना गलत है कि निर्मोही अखाड़ा ही केवल रामलला विराजमान और स्थान श्रीराम-जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व करता है। विवादित भवन के भीतर विराजमान रामलला की पूजा का अधिकार निर्मोही अखाड़े का नहीं है।

रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि विधिक प्राणी हैं। वे वाद-मित्र के माध्यम से अपना मुकदमा लड़ सकते हैं। वाद-मित्र वादी के रूप में रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम जन्मभूमि का प्रतिनिधित्व अदालत में कर सकते हैं। विवादित परिसर ही हिन्दुओं की परम्पराओं, विश्वास और आस्था के आधार पर श्रीरामलला विराजमान का जन्मस्थान है। परिसर में रामलला विराजमान की पूजा अनादिकाल से होती चली आ रही है। प्रस्तुत वाद में प्रश्नगत सम्पत्ति का प्रस्तुतीकरण ठीक ढँग से किया गया है। श्रीराम जन्मभूमि न्यास एक वैधानिक न्यास है। 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रामलला मध्य गुम्बद के नीचे स्थापित किये गये और वह विग्रह ही आज कपड़े के बने अस्थाई मंदिर में विराजमान हैं और यह विग्रह प्राण-प्रतिष्ठित है। रामलला विराजमान तथा स्थान श्रीराम-जन्मभूमि के वाद में माँगी गई राहत ग्राह्य है।

न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निर्णय का सारांश
01. हिन्दुओं की आस्था और विश्वास के आधार पर विवादित भवन के बीच वाले गुम्बद के नीचे का भाग ही भगवान राम की जन्मभूमि है।
02. विवादित भवन सदैव से एक मस्जिद माना जाता रहा और मुस्लिम उसी रूप में उसमें इबादत करते रहे। यद्यपि यह सिद्ध नहीं किया जा सका कि 1528 ईस्वी में बाबर के समय में इसे बनाया गया। वाद में लिखे गये तर्कों और दस्तावेजों के अतिरिक्त यह कहना कठिन है कि कब और किसके द्वारा इस विवादित भवन का निर्माण किया गया। परन्तु यह स्पष्ट है कि इस विवादित परिसर का निर्माण ईस्वी सन् 1766 से 1771 के बीच अवध में फ्रांसीसी पादरी टाइफैनथैलर के आगमन के पहले हुआ। विवादित परिसर का निर्माण एक गैरइस्लामिक, धार्मिक भवन अर्थात् हिन्दू मंदिर को गिराने के पश्चात् किया गया।
03. रामलला का विग्रह विवादित ढाँचे के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखा गया।
04. निर्मोही अखाड़े द्वारा दायर वाद तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद वैधानिक समयसीमा के पश्चात् दायर किये गये, इसलिए रद्द किये जाते हैं।

न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा के निर्णय का सारांश
01. विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है। स्थान श्रीराम-जन्मभूमि एक विधिकप्राणी है और देवता है। दैवीय भाव से युक्त है और एक बालक के रूप में रामलला का जन्मस्थान होने के कारण पूजित है। दिव्यता का भाव सदैव रहता है, सब स्थानों पर रहता है, हर समय रहता है, सबके लिए रहता है और अपने-अपने हृदय में होनेवाली अनुभूति के अनुसार यह देवत्व निराकार अथवा अन्य किसी भी आकार का हो सकता है।

02. विवादित भवन बाबर द्वारा बनवाया गया। निर्माण का वर्ष निश्चित नहीं है; परन्तु यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना; अतः मस्जिद का स्वरूप नहीं ले सकता। यह भवन एक पुराने भवन को गिराकर उसी स्थान पर बनाया गया। पुरातत्व विभाग ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह पुराना भवन एक विशाल हिन्दू धार्मिक भवन था।

03. मूर्तियां विवादित भवन के मध्य गुम्बद के नीचे 23 दिसम्बर 1949 की अतिप्रातः रखी गईं।
04. यह सिद्ध है कि विवादित सम्पत्ति भगवान राम की जन्मभूमि है और सर्वसामान्य हिन्दुओं को यह अधिकार है कि वह चरणपादुका, सीतारसोई और उस स्थान पर रखी हुई अन्य पूजा-योग्य वस्तुओं की पूजा करें। यह भी सिद्ध है कि हिन्दू विवादित स्थान को जन्मस्थान के रूप में पूजते चले आ रहे हैं अर्थात् जन्मभूमि एक देवता है और अनादिकाल से भक्त इसे पवित्र स्थान मानकर दर्शन करने आते रहे हैं। विवादित भवन के निर्माण के पश्चात् 23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में मूर्तियाँ वहाँ रखी गईं; यह सिद्ध है। यह भी सिद्ध है कि विवादित परिसर का बाहरी भाग (बाहरी आँगन जिसमें राम चबूतरा, सीतारसोई व चरणचिह्न थे) सदैव से केवल हिन्दुओं के कब्जे में रहा और वे सदैव इसकी पूजा करते रहे और भीतरी भाग (भीतरी आँगन जिसमें तीन गुम्बदों वाला ढाँचा था, उसमें भी वे पूजा करते रहे) यह भी प्रमाणित है कि यह विवादित भवन मस्जिद नहीं माना जा सकता; क्योंकि यह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध बना।
05. सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद तथा निर्मोही अखाड़े का वाद वैधानिक समय-सीमा के बाद दायर किये गये, अतः निरस्त किये जाते हैं।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान के निर्णय का सारांश
01. विवादित ढाँचा बाबर के आदेश से मस्जिद के रूप में बनवाया गया; परन्तु यह प्रमाणित नहीं हो सका कि निर्मित भवन सहित सम्पूर्ण विवादित परिसम्पत्ति बाबर की या मस्जिद को बनाने वाले की या जिसके आदेश से इसे बनाया गया उसकी सम्पत्ति है।

02. मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मंदिर को नहीं तोड़ा गया; परन्तु मस्जिद किसी मंदिर के खण्डहर पर बनाई गई; जो खण्डहर धरती के नीचे मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से दबे पड़े थे और उसी खण्डहर की कुछ सामग्री मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई। मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से ही हिन्दू मानते थे तथा उनका विश्वास था कि इस बहुत विशाल भूखण्ड में कहीं भगवान राम का जन्मस्थान स्थित है। विवादित परिसर इस विशाल भूखण्ड का एक छोटा सा ही हिस्सा है। हिन्दू समाज का यह विश्वास किसी स्थान विशेष को चिह्नित नहीं करता, जिसके मध्य यह विवादित परिसर भी आ जाये। मस्जिद के बन जाने के पश्चात् से ही हिन्दू इसी विवादित परिसर को राम की जन्मभूमि के रूप में पहचानने लगे।

03. 1855 ईस्वी के बहुत पहले ही रामचबूतरा और सीतारसोई थी और हिन्दू उसकी पूजा करते थे। यह अपने में बहुत अद्वितीय और दुर्लभ अवस्था है कि मस्जिद की चारदीवारी के भीतर एक हिन्दू धार्मिक स्थान भी है; जिसमें हिन्दू पूजा करते हैं और मस्जिद में मुसलमान नमाज भी पढ़ते हैं। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही इस संपूर्ण विवादित परिसर का सामूहिक भागीदार माना जायेगा। यद्यपि हिन्दू और मुसलमान परिसर के अलग-अलग हिस्सों को उपयोग कर रहे थे और वे अलग-अलग हिस्से उनके कब्जे में भी थे, तो भी इससे परिसर का बंटवारा नहीं हुआ और संपूर्ण परिसर दोनों के ही सामूहिक कब्जे में बना रहा। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही पक्ष अपने मालिकाना हक को सिद्ध करने में असफल रहे; अतः दोनों का सामूहिक कब्जा होने के कारण दोनों का ही मालिकाना हक माना जायेगा। इसलिए दोनों पक्ष ही सामूहिक कब्जे के आधार पर सम्पत्ति के सामूहिक मालिक घोषित किये जाते हैं। एक प्राथमिक डिक्री इस शर्त के साथ जारी की जाती है कि वास्तविक बँटवारे के समय बीच वाले गुम्बद का स्थान हिन्दू को दिया जायेगा; जहाँ आज रामलला विराजमान हैं।

04. 1949 के कुछ दशकों पूर्व से ही हिन्दुओं ने यह मानना और विश्वास करना प्रारंभ कर दिया कि तीन गुम्बदों वाले ढांचे में मध्य गुम्बद का भाग ही भगवान राम की ठीक-ठीक जन्मभूमि है और उसी स्थान पर आज कपड़े का अस्थाई मंदिर बना है। इसी स्थान पर 23 दिसम्बर 1949 के अतिप्रातः मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के नीचे रामलला का विग्रह स्थापित किया गया।
विशेष :- न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने किसी भी वाद को कालबाह्य मानकर अथवा अन्य किसी कारण से भी निरस्त नहीं किया।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान द्वारा पारित आदेश
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह आदेश दिया जाता है कि मुस्लिम, हिन्दू और निर्मोही अखाड़ा तीनों ही विवादित सम्पत्ति (वर्ष 1950 में श्री शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा तैयार किये गये मानचित्र में जिसे ए, बी, सी, डी, ई, एफ से दर्शाया गया है और यह मानचित्र जनवरी 1950 में गोपाल सिंह विशारद द्वारा दायर किये गये वाद में नत्थी है) के संयुक्त स्वामी घोषित किये जाते हैं और तीनों को ही इस परिसर का 1/3 भाग प्रत्येक को उनकी पूजा और प्रबन्धन के लिए दिया जायेगा। तदनुसार प्रारम्भिक डिक्री इस आशय के साथ पारित की जाती है कि वास्तविक बँटवारे में मध्य गुम्बद के नीचे का अंश जहाँ वर्तमान में भगवान रामलला विराजमान हैं, हिन्दुओं को दिया जायेगा तथा वास्तविक बँटवारे में रामचबूतरे को परिसर का वह भाग अवश्य दिया जायेगा जो भाग शिवशंकर लाल कमिश्नर द्वारा बनाये गये मानचित्र में रामचबूतरा और सीतारसोई के नाम से दर्शाये गये हैं। यह भी स्पष्ट किया जाता है कि तीनों पक्षकारों को परिसर का 1/3-1/3 भाग बराबर-बराबर देने की घोषणा की गई है, अतः यदि वास्तविक बँटवारे के समय कुछ समन्वय, समायोजन की आवश्यकता पड़ती है; तो वह किया जाये और प्रभावित पक्ष को आस-पास की उस भूमि का (जो आज भारत सरकार के अधिकार में है) कुछ भाग देकर क्षतिपूर्ति की जाये; ताकि तीनों पक्षकारों को समान भूमि प्राप्त हो।

न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने अपने आदेश में लिखा है कि जिन वाद-बिन्दुओं पर मैंने अपने निष्कर्ष नहीं लिखे हैं; उन सभी वाद-बिन्दुओं पर मेरी सहमति सहयोगी न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल के निष्कर्षों से है।

क्या हिन्दू समाज मस्जिद का विरोधी है ?
हिन्दू समाज न तो मुस्लिम समाज का विरोधी है और न ही मस्जिद का विरोधी है। वर्ष 1992 में नवम्बर मास के अन्तिम सप्ताह में तथा दिसम्बर के पहले सप्ताह में अयोध्या में सम्पूर्ण भारत से आये कई लाख रामभक्त (कारसेवक) एकत्र थे। अयोध्या में 15 से भी अधिक मस्जिदें अभी भी हैं; परन्तु किसी भी मस्जिद को कारसेवकों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या में कई हजार मुस्लिम आबादी है। किसी मुस्लिम को पूरे देश से आये रामभक्तों ने स्पर्श नहीं किया। अयोध्या, फैजाबाद अथवा मार्ग में भी किसी दुकानदार को पीड़ित नहीं किया। किसी महिला से अभद्र व्यवहार नहीं हुआ। साधु-सन्तों ने दिल्ली में सम्पन्न हुई धर्मसंसद में सार्वजनिक घोषणा की थी कि 6 दिसम्बर 1992 को प्रातः 11.45 बजे अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर-निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे। सभी ने इस दिनांक व समय का पालन किया। निर्धारित समय के पूर्व किसी ने भी ढाँचे को स्पर्श नहीं किया। वे पूर्ण अनुशासित थे। वे एक बड़ा लक्ष्य अपने हृदय में सँजोकर अयोध्या आये थे। उन्हें केवल श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े तीन गुम्बदों वाले उस ढाँचे से सरोकार था; जिसे हिन्दू समाज 464 साल से गुलामी का कलंक मानता था और स्वाभिमानी भारत उस कलंक को मिटा देना चाहता था। वह ढाँचा धार्मिक उपासना-स्थल के रूप में नहीं बनाया गया था; अपितु भारत पर इस्लाम की विजय के प्रतीक के रूप में हिन्दू समाज के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर खड़े मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। इस ढाँचे को हटा दिया गया; तो यह उसी प्रकार उचित रहा जैसे दिल्ली में इण्डिया गेट के नीचे खड़ी किसी अंग्रेज की मूर्ति की किसी देशभक्त ने नाक तोड़ दी; तो भारत सरकार ने उसे सम्मानपूर्वक हटवाकर कहीं रख दिया। उसकी कोई आलोचना नहीं करता; क्योंकि वह प्रतिमा भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य की याद दिलाती थी।

प्रतिवादियों को भी जाने
यह समझना आवश्यक है कि श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी और राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (जिसका गठन जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारिकापीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज द्वारा हुआ) का स्वतंत्र रूप से कोई मुकदमा नहीं है। उन्हें केवल अन्य हिन्दू पक्षकारों के समान प्रतिवादी के रूप में पक्षकार बनाया गया है। इनके द्वारा किसी दावे में कोई प्रतिदावा भी प्रस्तुत नहीं किया गया। इस कारण न्यायालय इनके पक्ष में कोई आदेश अलग से देने की स्थिति में नहीं है। श्री रमेशचन्द्र त्रिपाठी व श्री मदनमोहन गुप्ता- संयोजक राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति, दोनों ही सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे में स्वयं अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने। श्रीमहंत धर्मदास पहलवान भी अपनी ओर से प्रार्थना पत्र देकर प्रतिवादी बने थे। परमहंस रामचन्द्र दास जी, हिन्दू महासभा दोनों को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने प्रतिवादी बनाया। परमहंस जी के साकेतवासी हो जाने के कारण उनके शिष्य महंत सुरेशदास प्रतिवादी बने। निर्णय प्रतिवादियों के पक्ष में नहीं होगा; अपितु वादी निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड अथवा रामलला विराजमान आदि में से किसी एक के पक्ष में होगा। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे अदालत ने रद्द कर दिये हैं। रामलला विराजमान का वाद स्वीकार हुआ है। हाशिम अंसारी मुस्लिमों के वाद में कुल 10 वादियों में से मात्र एक वादी हैं जिनका अपना स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं है।

मुकदमों की पैरवी करने वाले अधिवक्ताओं का विवरण ?
गोपाल सिंह विशारद के मुकदमे की पैरवी लखनऊ के श्री पुत्तुलाल मिश्रा अधिवक्ता करते थे, उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ के ही एक युवा अधिवक्ता श्री देवेन्द्र प्रसाद गुप्ता उसकी पैरवी करने लगे। अन्त में श्री अजय पाण्डेय अधिवक्ता ने उनकी ओर से अदालत के सामने एक दिन बहस भी की।

निर्मोही अखाड़े की ओर से अयोध्या निवासी अधिवक्ता श्री रणजीत लाल वर्मा पैरवी करते थे। वे नित्य अदालत में आते भी थे। उन्होंने ही अदालत में जिरह/बहस भी की। उनकी अनुपस्थिति में उनके पुत्र श्री तरुणजीत वर्मा अदालत में उपस्थित रहते थे।

सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से श्री जफरयाब जिलानी एवं श्री मुश्ताक अहमद सिद्दीकी एवं अन्य तीन-चार अधिवक्ताओं की टोली पैरवी करती थी। श्री अब्दुल मन्नान भी इस मुकदमे में पैरवी करते थे, वे बहुत बुर्जुग थे, उनका देहावसान हो गया। प्रसिद्ध विधिवेत्ता श्री सिद्धार्थ शंकर रे (बंगाल), जफरयाब जिलानी और मुश्ताक अहमद सिद्दीकी ने जिरह/बहस की।

रामलला विराजमान की ओर से श्री वेदप्रकाश निगम अधिवक्ता पैरवी करते थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के.एन. भट्ट ने रामलला विराजमान की ओर से अदालत में बहस की।

प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज (वर्तमान में महंत सुरेश दास जी दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या) की ओर से फैजाबाद निवासी श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता गत 17 वर्षों से पैरवी कर रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने बहस की, उनका सहयोग सर्वोच्च न्यायालय के ही अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रमजीत बनर्जी, सौरभ शमशेरी एवं भक्तिवर्धन सिंह ने किया।

श्री मदनमोहन पाण्डेय अधिवक्ता ने रामलला विराजमान एवं प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्र दास दोनों की ओर से पुरातत्व की रिपोर्ट पर एवं गवाहों के बयान तथा दस्तावेजों पर बहस की।

प्रतिवादी बाबा अभिराम दास (वर्तमान में श्रीमहंत धर्मदास जी) की पैरवी फैजाबाद निवासी अधिवक्ता श्री वीरेश्वर द्विवेदी करते थे। उनके देहावसान के पश्चात् लखनऊ निवासी श्री राकेश पाण्डे अधिवक्ता ने उनकी पैरवी की, (श्री राकेश पाण्डे के पूज्य पिताजी श्री के.एम. पाण्डेय ने जिला न्यायाधीश के रूप में ही श्री राम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने का आदेश दिया था)। मद्रास हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने श्रीमहंत धर्मदास जी की ओर से अदालत में बहस की।

प्रतिवादी श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति (पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज द्वारा गठित) की ओर से कुमारी रंजना अग्निहोत्री अधिवक्ता उपस्थित रहती थीं। बहस कलकत्ता हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एन. मिश्रा ने की। प्रतिवादी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की ओर से जिरह/बहस अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन (लखनऊ) ने की। प्रतिवादी रमेशचन्द्र त्रिपाठी की ओर से कोई अधिवक्ता प्रस्तुत नहीं हुआ; परन्तु किसी के बहकावे में आकर निर्णय टलवाने के लिए अदालत में अवश्य चले गये।

(लेखक : विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महामंत्री हैं

Friday, July 16, 2010




Hurry...We finally got our own rupee symbol.
Thanx to IIT-ian D Uday Kumar ,the Rupee has now a symbol like other major currencies.
The union cabinet approved the symbol yesterday (16/7/2010).The indian rupee is now the fifth currency in the world to have a distinct identity.
The Rupee will join the elite club of US Dollar,British Pound, Euro and Janpanese Yen to have its own symbol.
The design based on the Tricolor with two lines at the top that shows the "equal to" sign.Its refelecting the indian national flag .
The indian government had announced a competition in march last year inviting creative designs from indian residents to respresnt the rupee.

Tuesday, July 6, 2010

खूब लड़ी मर्दानी वह तो...



यह वह समय था, जब मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए भारतीय वीर अपनी जान की भी परवाह किये बिना पराये शासकों के दमन के विरुद्ध बग़ावत करने पर तुल गये और लड़ाई शुरू कर दी। वह 1857 का वर्ष था। तब तक अंदर ही अंदर सुलगती हुई विद्रोह की ज्वाला एकदम ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। इनका जन्म 19 नवम्बर 1827 को वाराणसी नगर के भदैनी मुहल्ले में हुआ था। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी ब्राह्मण थे और मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी।

चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन 1842 में इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन 1853 में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु 21 नवंबर 1853 में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो उस समय बालक ही थे, को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया, तथा झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया। तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ ही रानी को झाँसी के किले को छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था। झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।

1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1857 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।

झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिन्सा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया। 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया।

1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झांसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अन्ग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झांसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली। 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर उनके विरूद्ध संघर्ष करना उचित समझा । वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ी और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुईं। वह 17 जून 1858 का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी।

संकलनकर्ता : अवनीश सिंह।

आध्यात्मिकता के संदेशवाहक स्वामी विवेकानंद



स्वामीजी की पुण्यतिथि पर विशेष

स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। उनका जन्म 12 मई, 1863 को कोलकाता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त बहुत ही उदार एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। स्वामी विवेकानंद पर अपने पिता के तर्कसंगत विचारों तथा माता की धार्मिक प्रवृति का असर था।

स्वामी जी के मन में बचपन से ही धर्म और दर्शन के प्रति अविश्वास का भाव पनपता चला गया। संदेहवादी और प्रतिवाद के चलते कभी भी किसी विचारधारा में विश्वास नहीं किया। जब तक कि खुद नहीं जान लिया कि आखिर सत्य क्या है, कभी कुछ भी तय नहीं किया। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पहले वह ब्रह्म समाज गए। फिर कई साधु-संतों के पास भटकने के बाद अंतत: स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सामने हार गए। रामकृष्ण के रहस्यमय व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, जिससे उनका जीवन बदल गया। 1881 में रामकृष्ण को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। उन्होंने रामकृष्ण के नाम पर रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना की।

1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।

उनका मानना था कि "जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है– अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।"

वर्ष 1893 में विश्व धर्म संसद में उनके ओजपूर्ण भाषण से ही विश्वमंच पर हिंदू धर्म के साथ भारत की भी प्रतिष्ठा स्थापित हुई। 11 सितंबर 1893 को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उनके तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए।

विवेकानंद पर वेदांत दर्शन, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग और गीता के कर्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। वेदांत, बौद्ध और गीता के दर्शन को मिलाकर उन्होंने अपना दर्शन गढ़ा ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनके दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा।

विवेकानंद मूर्तिपूजा को महत्व नहीं देते थे, ‍लेकिन वे इसका विरोध भी नहीं करते थे। उनके अनुसार 'ईश्वर' निराकर है। ईश्वर सभी तत्वों में निहित एकत्व है। संसार ईश्वर की ही सृष्टि है। आत्मा का कर्त्तव्य है कि शरीर रहते ही 'आत्मा के अमरत्व' को जानना। मनुष्य का चरम भाग्य 'अमरता की अनुभूति' है।

राजयोग को ही मोक्ष का मार्ग मानने वाले स्वामी विवेकानंद का 4 जुलाई 1902 को निधन हो गया। मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में स्वामी जी ने अपने विचारों से युवाओं के मन मस्तिष्क पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उनके गुजरने के सौ वर्ष से अधिक समय बाद भी युवा पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेती है। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।

संकलनकर्ता : अवनीश सिंह।

Wednesday, June 16, 2010

सर्कस: अस्तित्व पर संकट


केशव यादव

हाईटेक दौर ने आज मनोरंजन के उस साधन पर अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है जो कभी चकाचौंध भरे मंच पर अपने रोमांचक करतब और कारनामों से दर्शकों को हैरान ही नहीं करता था, हंसाता भी था और जानवरों को अपने इशारों पर नचाता था। यह है सर्कस, जिसे इतिहास के पन्नों में सिमट जाने का डर सता रहा है। एक समय था जब सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था। लेकिन आज टेलीविजन तथा इंटरनेट के दौर में सर्कस का मनोरंजन हाशिए पर पहुंच गया है। दर्शकों और समुचित मंच के अभाव के कारण प्रतिभाशाली कलाकार सर्कस से दूर होते जा रहे हैं।
अपोलो सर्कस के प्रबंधक रमेश तिरूला कहते हैं ''पहले सर्कस जिस शहर में जाता था वहां धूम मच जाती थी। लगभग हर दिन सर्कस के लोग पशुओं को लेकर शहर में जुलूस निकालते थे। जोकर भी साथ होते थे। यह सब प्रचार के लिए होता था। अब तो लाउडस्पीकर लेकर शहर में निकल ही नहीं सकते।'' रमेश बताते हैं ''जानवर सर्कस का मुख्य आकर्षण होते थे। अब सरकार ने सर्कस में जानवरों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। टीवी, वीडियो गेम और इंटरनेट ने रही सही कसर पूरी कर दी। आखिर दर्शक क्या देखने के लिए सर्कस आएंगे- सर्कस से कोई क्यों जुड़ना चाहेगा।'' सर्कस उद्योग से जुड़े लोग मानते हैं कि सरकारी समर्थन नहीं मिलने और नई प्रतिभाओं की कमी भी इस उद्योग को लाचार बना रही है जिसके कारण इस उद्योग से जुड़े लोग अन्यत्र विकल्प तलाश रहे हैं।

भारत में अब चंद सर्कस कम्पनियां ही रह गई हैं जिन्हें भी बदलते माहौल और लोगों की रूचि में बदलाव की वजह से अपने अस्तित्व की सबसे कठिन लड़ाई लड़नी पड़ रही है। पिछली करीब तीन शताब्दियों से दर्शकों पर अपना जादू चला रहे सर्कस की दयनीय स्थिति के बारे में जेमिनी सर्कस के मालिक अजय शंकर ने बताया ''सरकार का समर्थन नहीं मिलने की वजह से सर्कस खत्म हो रहे हैं। सर्कस के कलाकारों की खानाबदोश जिंदगी और स्थायित्व की कमी के कारण भी स्थिति बहुत विषम हो गई है।'' उन्होंने कहा''सरकार को सर्कस अकादमी का गठन करना चाहिए ताकि न सिर्फ नए कलाकारों की प्रतिभा को निखारा जा सके बल्कि दम तोड़ रहे इस पारम्परिक माध्यम में नए खून का संचार किया जा सके।''

शंकर ने कहा कि चीन और अमेरिका की तरह भारत में भी सर्कस अकादमी खोली जानी चाहिए ताकि न सिर्फ नए कलाकारों की प्रतिभा को निखारा जा सके बल्कि सर्कस में लोगों का मनोरंजन करके अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा गुजार देने वाले लोगों को प्रशिक्षक के तौर पर रोजगार भी दिया जा सके। रमेश कहते हैं ''रूस में सरकार ने सर्कस को पुनर्जीवित करने के लिए प्रमुख शहरों में केंद्र स्थापित किए हैं जहां पूरे साल सर्कस चलता है। यहां भी ऐसे ही प्रयास किए जाने चाहिए।'' सर्कस रूपहले पर्दे पर और छोटे पर्दे पर भी अपना जादू बिखेर चुका है। राजकपूर की ''मेरा नाम जोकर'' और छोटे पर्दे पर शाहरुख खान अभिनीत धारावाहिक ''सर्कस'' को लोगों ने खूब पसंद किया। शंकर ने कहा कि अगर समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो मनोरंजन का यह अनोखा माध्यम इतिहास के पन्नों में खो जाएगा।

गोवंश आधारित अर्थ-व्यवस्था के लिए आगे आएं उद्योगपति



आज देश में गोरक्षा के अनेक प्रयास हो रहे हैं। देश के अनेक राज्यों ने गोवंश बंदी के कानून भी पारित किए हैं। हाल ही में कर्नाटक राज्य ने भी विधानसभा में गोवध बंदी का ऐतिहासिक कानून पारित कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि देश के उन राज्यों में जहां पहले से गोहत्या बंदी के कानून बने हुए हैं, वहां भी धड़ल्ले से गोहत्या का कारोबार चल रहा है। इससे स्पष्ट है कि केवल कानून बना देने से गोवंश को कटने से रोका जाना असंभव है। गोवंश के पर्यावरणीय, आर्थिक एवं सामाजिक महत्व के व्यावहारिक रूप का क्रियान्वयन आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

वर्तमान समय में गोहत्या निषेध कानून के बावजूद पुलिस, प्रशासन और गोहत्यारों की मिलीभगत से गोहत्या और गोतस्करी का कारोबार देश के अनेक प्रांतों में धड़ल्ले से जारी है। विशेषकर, उत्तर भारत के अनेक राज्यों में, जहां गोहत्या अपराध है, उन राज्यों से रोजाना बड़ी संख्या में गोवंश ट्रकों में लादकर अवैध रूप से कटने के लिए बंगलादेश की सीमा में भेजा जा रहा है। जानकारों के मुताबिक, गोहत्यारे और गोमांस के व्यवसायी गोहत्या एवं गोतस्करी निरोधक कानूनों की तोड़ निकालने के सभी संभव उपाय कर लेने में सक्षम हैं। देश में संस्थागत रूप ले चुका भ्रष्टाचार इसके पीछे की एक प्रमुख वजह है।

इस संदर्भ में गोरक्षकों के सामने चुनौती इस बात की है कि जैसे भी हो गोवंश को गोहत्यारों के हाथों में पहुंचने ही न दिया जाए। गोरक्षा का काम गोशालाओं के द्वारा संभव है। गोशालाओं में गायें उम्र भर सुरक्षित ढंग से रखी जा सकती हैं। वहां अनेक उत्पादक कार्यों में गोवंश का प्रभावी ढंग से उपयोग हो सकता है और हो रहा है। लेकिन अगर देश में गोशालाओं की वर्तमान क्षमता और उनके संसाधनों को आंका जाए तो गोशालाएं पूरे तौर पर बड़े पैमाने पर गोवंश रखने में असमर्थ हैं।

उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में आज एक करोड़ चौवन लाख के लगभग गोवंश शेष है। इसमें से मात्र एक लाख पच्चीस हजार गोवंश लगभग 250 गोशालाओं में रह रहा है। इस प्रकार एक करोड़ तिरपन लाख गोवंश तो आज भी अन्नदाता किसान और पशुपालकों के पास ही है।
छत्तीसगढ़ में एक करोड़ अट्ठाइस लाख अट्ठासी हजार गोवंश है जिसमें से मात्र ग्यारह हजार गोवंश लगभग 62 गोशालाओं में सुरक्षित है। शेष एक करोड़ अट्ठाइस लाख सतहत्तर हजार गोवंश तो समाज अर्थात गांवों में पशुपालकों के पास है।

गुजरात राज्य में एक करोड़ नौ लाख गोवंश है जिसमें से मात्र दो लाख के करीब गोवंश राज्य के 82 गोशालाओं में शरण लिए हैं। शेष गोवंश गांवों में या कस्बों में पशुपालकों के पास है।

हरियाणा राज्य में लगभग 22 लाख गोवंश है। जिसमें से डेढ़ लाख गोवंश 255 गोशालाओं में सुरक्षित हैं। शेष ग्रामों और कस्बों में हैं।

हिमाचल प्रदेश में 29 लाख गोवंश है जिसमें से मात्र 6000 गोवंश 60 गोशालाओं के पास हैं। शेष गोवंश परिवार आश्रित हैं।

कर्नाटक राज्य में एक करोड़ उन्तालीस लाख गोवंश हैं, जिसमें से 55 हजार गोवंश 120 गोशालाओं के पास हैं। शेष समाज के पास हैं।

महाराष्ट्र में करीब दो करोड़ से अधिक गोवंश हैं जिसमें से 156 गोशालाओं में पचास हजार के करीब गोवंश रहता है। शेष गोवंश गांवों और निजी तौर पर पशुपालकों के पास हैं।

मध्य प्रदेश में तीन करोड़ के लगभग गोवंश हैं जिसमें सेमात्र 80 हजार गोवंश लगभग 500 गोशालाओं में निवास करता हैं। शेष ग्रामों और नगरों में परिवार आश्रित हैं।

ओडिशा में भी लगभग डेढ़ करोड़ गोवंश हैं जिसमें से मात्र 6000 गोवंश 6 गोशालाओं में रह रहा है।

पंजाब में पच्चीस लाख गोवंश हैं जिसमें से दो लाख पैतीस हजार गोवंश 203 गोशालाओं में रह रहा है।

राजस्थान में एक करोड़ 66 लाख गोवंश हैं जिसमें से 12 लाख गोवंश 4000 गोशालाओं में रह रहा है।

उत्तर प्रदेश में दो करोड़ 65 लाख गोवंश हैं जिसमें से मात्र 56 हजार गोवंश 351 गोशालाओं के पास है।

कुल मिलाकर देश में इस समय गोवंश की कुल संख्या पच्चीस करोड़ 11 लाख बयालीस हजार के लगभग है। इसमें से मात्र 35-36 लाख गोवंश गोशालाओं में सुरक्षित हैं। स्पष्ट है कि साढ़े चौबीस करोड़ गोवंश तो समाज अर्थात ग्राम, कस्बे और नगरों में निवास करने वाले पशुपालकों और नागरिकों के दरवाजे पर ही आश्रय लिए हुए है।

स्वाभाविक ही कहा जा सकता है कि समाज में सक्रिय गोवंश के दलालों और विक्रेताओं के द्वारा, चाहे प्रवंचनापूर्वक अथवा धन के लोभ में, गोवंश गोहत्यारों के हाथ में पहुंच रहा है।
इसमें अधिकांशत: वह गोवंश शामिल रहता है जो या तो बूढ़ा है अथवा जिन गायों ने दूध देना बंद कर दिया है। निरपयोगी गायों को पशुपालक मात्र कुछ रूपयों के लिए गोहत्यारों के हाथों में सौंप रहे हैं।

दूसरे, देश में व्यवस्थित रूप से गोशालाओं का तंत्र अभी खड़ा होने में समय है। गोशालाओं के उन्नयन और उन्हें आधुनिक गो-कृषि, चिकित्सा और ऊर्जा तकनीकी के साथ समन्वित तरीके से काम करने में व्यापक पैमाने पर विशेषज्ञों के मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि देश में जैविक कृषि, गोदुग्ध उत्पादन, पंचगव्य आधारित चिकित्सा, ऊर्जा जरूरतों और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं में गोमूत्र और गोमय का विधिपूर्वक प्रयोग व्यापक पैमान पर प्रारंभ हो सके। इस कार्य में गोशालाओं की प्रासंगिकता समय सिद्ध है।

यहां प्रश्न उठता है कि देश में गोशालाएं क्या व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन का माध्यम बन सकती हैं? वर्तमान परिस्थिति और प्रयोगों को देखते हुए कहा जा सकता है कि गोशालाएं देश में दैनिक जीवनोपयोगी अनेक वस्तुओं के निर्माण का आधारभूत केंद्र बनने की ओर तेजी से अग्रसर हैं।

यहां आवश्यकता इस बात की है कि गोशालाओं का प्रबंधन कुशलतापूर्वक हो। आधुनिक प्रबंधन विधा का प्रयोग कर, गोवंश के आधार पर निर्मित उत्पादों के समुचित विज्ञापन एवं विपणन की व्यवस्था कर हम गोवंश को लाभ आधारित उद्यमों में एक प्रमुख उद्यम बना सकते हैं।

विशेष रूप से जो गोवंश बड़ी मात्रा में समाज और परिवार आश्रित है, उसकी रक्षा का समुचित उपाय करने की जरूरत है। यह बात ठीक है गोरक्षा के पीछे गाय के प्रति जनसाधारण की धार्मिक आस्था का विशेष महत्व है। उसका गुणकारी दूध भी एक बड़ा कारण है। गोवंश के गुणों से मुग्ध होकर बड़े पैमाने पर भारतीय समाज गाय को घर पर पालना शुभ एवं पवित्र कार्य मानते हैं। भारतीय ग्राम आधुनिकता की इस आंधी में आज भी गोरक्षा के स्वधर्म पर अडिग दिखाई देते हैं।

लेकिन बड़ा संकट बैलों के सामने हैं जिन्हें ट्रैक्टर ने रोजगार विहीन कर दिया है। दूध न देने वाली गाय और बैल आज अनेक पशुपालकों को अपने ऊपर बोझ लगने लगते हैं। इस स्थिति के निवारण का उपाय यही है कि गोवंश पालकों को गोमूत्र और गोमय का उचित मूल्य मिले।
जिस दिन गोमूत्र और गोमय की उचित कीमत किसान और गोपालक को मिलने लगेगी तो उसकी समस्या का निवारण स्वत: हो जाएगा। एक ओर वह गोदुग्ध के उत्पादन के लिए गाय पालने का कार्य करेगा तो दूसरी ओर गोमूत्र और गोबर की उचित कीमत मिलने पर उसके लिए दुग्धविहीन गाय और बैल का पालन करना भी सहज हो जाएगा। इस प्रकार गोवंश को गोहत्यारों के हाथों में जाने से रोकना एक आसान कार्य हो सकता है।

यही वह बिंदु है जहां भारतीय व्यापारियों की श्रेष्ठ मेधा और प्रतिभा की परीक्षा होनी है। भारत के व्यापारी चिरकाल से गोसेवा और गोरक्षा के कार्य में अग्रणी रहे हैं। लेकिन आधुनिकता की आंधी में उन्होंने किंचित ही सही गोरक्षा के अपने स्वाभाविक धर्म को मात्र चंदा और गोपूजन तक सीमित कर लिया लेकिन गोवंश आधारित उद्यम भी मुनाफे के साथ चल सकते हैं, इस अवधारणा के प्रति भारतीय व्यापारियों ने उपेक्षापूर्ण रवैया अपना लिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि आजादी के तत्काल बाद गोवंश आधारित उद्यमों का कोई पुरसाहाल नहीं रहा। गोसेवकों को चंदा तो मिला लेकिन गो आधारित उद्यमों में जिस मात्रा में निवेश होना चाहिए, वह नहीं हुआ। गोवंश आधारित उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने में जिस कुशलता की आवश्यकता होती है, उससे गोवंश वंचित हो गया।

आज जब संपूर्ण विश्व में जैविक अन्न की मांग बढ़ गई है, शस्टेनेबल विकास और जीवन पद्धति के प्रति लोग संवेदनशील हुए हैं, गोमूत्र और गोबर से अनेक बहुमूल्य उत्पाद तैयार होने लगे हैं- जैसे- गोबरगैस को सिलिंडर में भरकर उसके विपणन का कार्य देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है।

इसके अतिरिक्त जैविक खेती से उपजे अन्न के लिए समुचित बाजार की व्यवस्था, गोमूत्र के कीटनाशक, गोमूत्र फिनायल, गोमूत्र आधारित दवाएं, गोबर के पार्टिकल, गोबर से बने प्लाईवुड, गोबर सहित पंचगव्य से बनने वाली मूर्तियां, गोबर मिश्रित पदार्थ का कागज, गत्ते, खिलौने, गोबर के प्रयोग से निर्मित विविध प्रकार की खाद आदि सैकड़ों किस्म के उत्पाद आज विविध रूप में सफलतापूर्वक बाजार में अपना स्थान बना रहे हैं।

गोवंश आधारित उत्पाद का निर्माण, विपणन एवं विज्ञापन शुद्ध रूप से मुनाफे पर आधारित औद्योगिक एवं व्यापारिक कार्य है। इस कार्य में कुशल उद्यमियों एवं व्यापारियों की सक्रियता समय की मांग है। गोमूत्र और गोबर की उचित कीमत गोपालक को तभी मिल सकती है जबकि गोवंश आधारित उत्पाद व्यापक पैमाने पर अपना बाजार बना सकें।

आज सामान्य तौर पर अनेक स्थानों पर 5 रूपये प्रति लीटर गोमूत्र और चार से पांच रूपये प्रति किलो गोबर की कीमत गोपालकों को मिलने लगी है। यह कार्य अगर देश के सभी प्रमुख राज्यों में भलीभांति प्रारंभ हो जाए तो गोवंश की रक्षा में यह मील का पत्थर बन सकता है। देश के अनेक राज्यों में इस प्रकार से गोमूत्र एवं गोबर की बिक्री कर गोपालक एवं गोशालाएं आय अर्जन करने लगी हैं।

एक गाय प्रतिदिन न्यूनतम 5 लीटर मूत्र एवं 7 से 8 किलो तक गोबर देती है, इस प्रकार प्रति गाय या बैल गोपालक को प्रतिदिन न्यूनतम 100 रूपये तक सहज ही आय हो सकती है। संप्रति 24 करोड़ गोवंश देश के ग्रामों और कस्बों में गोपालकों के पास है, उसकी रक्षा की दिशा में गोमूत्र और गोबर का बिक्रय क्रांतिकारी रूप से सहायक हो सकता है।

गोवंश आधारित उत्पादों के निर्माण एवं विक्रय के काम को कुशलतापूर्वक करने और इसे विज्ञापित करने में कुशल उद्यमियों की ओर आज गोमाता टकटकी लगाए देख रही है। कभी समय था गोमाता ने अपनी रक्षा के लिए सम्राटों के दरवाजे खटखटाए, संतों-धर्मात्माओं के सामने गोमाता ने जीवन रक्षा की गुहार लगाई, धर्म के आधार पर गोरक्षा के लिए तत्पर समाज का सहारा लिया, लेकिन इस कलिकाल में जब घोर आर्थिक युग आ गया, जब धन के लिए पिता-पुत्र, भाई-भाई तक एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं, तब गोमाता रक्षा के लिए किसके पास जाए? जाहिर है, जब अर्थ यानी धन की चाहत ने उसे विनाश की ओर धकेला है तो धन ही उसके बचने का आधार भी बन सकता है। यहीं पर हमारे व्यापारिक वर्ग पर गोरक्षा का महान दायित्व आ जाता है

Tuesday, June 15, 2010

नंदीग्राम से वेदांत विश्वविद्यालय तक- सरकारी दमन की एक ही गाथा



डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री
12 मई 2004 को मुम्बई में वर्ली में रहने वाले चार लोगों ने मिलकर भारतीय कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत स्टरलाईट फाउंडेशन का पंजीयन करवाया। इस धारा के अंतर्गत पंजीयन होने वाली कम्पनियां प्राइवेट होती हैं और उनका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनसेवा करना होता है। फाउंडेशन का पंजीयन करानेवाले ये परोपकारी जीव द्वारकादास अग्रवाल का बेटा अनिल कुमार अग्रवाल और उनकी बेटी सुमन डडवानिया हैं। इनके इस फाउंडेशन में अनिल कुमार अग्रवाल के दादा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल भी हैं। इस प्रकार अग्रवाल परिवार के 4 सदस्यों को स्टरलाईट फाउंडेशन प्रारम्भ हुआ। कम्पनी का पंजीयन करवाते समय यह बताना आवश्यक होता है कि कम्पनी में किसी भी प्रकार की उन्नीस -इक्कीस हो जाने की स्थिति में क्षति की भरपाई करने की किसकी कितनी जिम्मेदारी होगी। इन चारों महानुभावों ने घोषित किया कि प्रत्येक की जिम्मेदारी केवल 5 हजार रुपए तक की होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि स्टरलाईट फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों ने केवल 20 हजार रुपए की जिम्मेदारी को स्वीकार किया। कुछ समय के बाद इस फाउंडेशन ने अपना नाम बदलकर नया नाम वेदांत फाउंडेशन रख दिया।

अनिल अग्रवाल के इस वेदांत फाउंडेशन की गाथा शुरु करने से पहले इसके बारे में थोड़ा जान लेना लाभदायक रहेगा। अग्रवाल इंग्लैंड में वेदांत के नाम से एक कम्पनी चलाते हैं जो अनेक कारणों से काली सूची में दर्ज है। उड़ीसा में अग्रवाल खदानों के धंधे से जुडे हुए हैं जिसको लेकर उन पर अनेक आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं। अग्रवाल उड़ीसा में ही बॉक्साईट की खदानों से जुडे हुए हैं और उन पर खदान के कार्य में अनियमितता बरतने के कारण अनेक मुकदमे चल रहे हैं। अनिल अग्रवाल कैसे फकीरी से अमीरी में दाखिल हुए यह एक अलग गाथा है। अनिल अग्रवाल के वेदांता रिसोर्सेज का नवीन पटनायक से पुराना रिश्ता है अग्रवाल उड़ीसा में वेदांत एल्युमिनियम प्रोजेक्ट चलाते हैं। अरबों रुपए की खदानों का मामला है और खदानों के इस मामले में कम्पनी कितना गड़बड़ घोटाला कर रही है, उड़ीसा के प्राकृतिक स्त्रोंतों को लूट रही है और नियम कानूनों की धज्यियां उडाकर अपना भंडार भर रही है इसका एक नमूना 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गयी केन्द्रीय उच्च शक्ति कमेटी द्वारा न्यायालय को सौंपी गयी रपट से अपने आप स्पष्ट हो जाता है। किस प्रकार अनिल अग्रवाल की खदान कम्पनी ने राज्य सरकार की मिली भगत से झूठ बोला, तथ्यों एवं प्रमाणों को बदला और विशेषज्ञों और उड़ीसा की जनता को जानबूझकर बुद्धू बनाने का प्रयास किया। कम्पनी अपनी गतिविधियों को छुपाना चाहती थी। सरकार इसमें सहायक हो रही थी। इस कमेटी ने सर्वोच्च न्यायालय को संस्तुति की कि अग्रवाल के एल्युमिनियम रिफाईनरी प्रोजेक्ट को जिस प्रकार पर्यावरण सम्बंधी एवं वनक्षेत्र में कार्य करने की अनुमति मिली है उससे इस बात का संदेह गहराता है कि राज्य सरकार इसमें मिली हुई है। जनहितों एवं राष्टृहितों का ध्यान नहीं रखा गया। इसका अर्थ यह हुआ कि अनिल अग्रवाल और उनकी कम्पनियां ओडिशा में क्या कर रहीं हैं यह मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से छुपा हुआ नहीं था। लेकिन शायद नवीन पटनायक के हित उड़ीसा के बजाय कहीं अन्यत्र रहते हैं।

वेदांत फाउंडेशन ने अप्रैल 2006 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को एक पत्र लिखकर यह सूचित किया कि फाउंडेशन पूरी, कोणार्क, मैरीना बीच के साथ एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाना चाहता है जिसका नाम वेदांत विश्वविद्यालय होगा। क्योंकि विश्वविद्यालय बहुत बडा होगा और बकौल अनिल अग्रवाल उसमें से नोबल पुरस्कार विजेता निकला करेंगे इसलिए, उसे इस पवित्र काम के लिए 10 हजार एकड जमीन की जरुरत होगी। शायद, अग्रवाल ने यह भी कहा होगा कि यह उड़ीसा के लिए अत्यंत गौरव का विषय होगा। उड़ीया न जानने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक उड़ीसा के गौरव की बात सुनकर चुप कैसे रह सकते थे। और फिर जब यह प्रस्ताव एक ही परिवार के दादा और पौत्र ने साथ मिलकर दिया हो तो उसकी अवहेलना कैसे की जा सकती थी। आजकल ऐसे संयुक्त परिवार बचे ही कितने हैं। यह अलग बात है नवीन पटनायक ने अग्रवाल परिवार से यह नहीं पूछा कि विश्वविद्यालय खोलने से पहले अपने कहीं कोई स्कूल -इस्कूल भी चलाया है या नहीं। खैर अग्रवाल के मित्र नवीन पटनायाक तुरंत सक्रिय हुए और पत्र मिलने के दो महीने के अंदर -अंदर उनके प्रिसीपल सेक्रेटरी ने 13 जुलाई को वेदांत विश्वविद्यालय खोलने के लिए फाईल चला दी। फाईल कितनी तेजी से दौडी होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके 5 दिन बाद ही 19 जुलाई का उड़ीसा सरकार ने फाउंडेशन के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर कर दिए।। यह अलग बात है कि उड़ीसा के लोकपाल ने बाद में अपने एक आदेश में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि फाउंडेशन की ओर से किसने हस्ताक्षर किए, यह स्पष्ट नहीं है क्यांेकि हस्ताक्षर पढे ही नहीं जा रहे। साथ ही कि यह एमओयू अनिल अग्रवाल फाउंडेशन को किसी समझौते में भी नहीं बांधता। यानी सरकार फाउंडेशन के लिए सबकुछ करेगी लेकिन फाउंडेशन किसी बंधन में बंधा नहीं रहेगा। इसी बीच अनिल अग्रवाल ने वेदांत फाउंडेशन का नाम बदलकर उसका नया नाम अपने नाम पर ही रख लिया।

अब सरकार को अनिल अग्रवाल या उनके फाउंडेशन के लिए 10 हजार एकड जमीन मुहैया करवानी थी, बहुत ज्यादा हो -हल्ला मचने के कारण अग्रवाल ने उड़ीसा सरकार पर एक दया कि और वे लगभग 6 हजार 2 सौ एकड प्राप्त करने पर ही उड़ीया गौरव को बचाने के लिए सहमत हो गए। अनिल अग्रवाल जानते है कि अपने इस नए शिक्षा उद्योग के लिए वे स्वयं भूमि नहीं खरीद सकते थे। किसान अपनी भूमि बेच या न बेचे यह उस पर निर्भर है। वैसे भी यदि किसान अपनी कृषि योग्य जमीन बेच देगा तो भूखों नहीं मरेगा तो और क्या करेगा। दूसरे अग्रवाल यह भूमि खुले बाजार में खरीदते तो निश्चय ही कीमत कहीं ज्यादा देनी पडती। इसके बावजूद भी एकसाथ लगभग 6-7 हजार एकड भूमि मिल पाना भी सम्भव नहीं है। तब एक ही रास्ता बचता था कि नवीन पटनायक इस भूमि का अधिग्रहण करने के बाद यह भूमि अपने मित्र अनिल अग्रवाल को इस शिक्षा उद्योग के लिए सौंप दें। इससे, एक तो भूमि की ही ज्यादा सस्ती कीमतें मिल जाती दूसरे भूमि अधिग्रहण के झंझट का सरकार को ही सामना करना पडता। इसलिए, अनिल अग्रवाल फाउंडेशन ने प्रस्ताव तो विश्वविद्यालय का रखा लेकिन उसका अर्थ पूरी कोणार्क मार्ग पर एक बहुत बडा नया प्राईवेट शहर बसाना है जिसकी मिल्कीयत अग्रवालों के पास रहती। विश्वविद्यालय का नाम देने से एक और सुभीता भी है। इस नए शहर के लिए शिक्षा के नाम पर सारी आधारभूत संरचना ओडिशा सरकार ही उपलब्ध करवा देगी। प्रस्तावित नया शहर अनिल अग्रवाल का होगा और उसे बसाने का खर्चा सरकार उठाएगी। जो भूमि अधिग्रहित की जा रही है उसमें साल मे तीन मौसम में खेती होती है। वह अत्यंत उपजाउ जमीन है। भूमि के अधिग्रहण से लगभग 50 हजार लोग उजड जाएंगे। उनके बसाने की सरकार के पास कोई योजना नहीं है। सरकार समझती है कि किसान को उसकी भूमि का मुआवजा भर देने से कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। एक व्यवसायी तो मुआवजे के पैसे नए स्थान पर अपना व्यवसाय शुरु कर सकता है लेकिन खेती करने वाला किसान जल्दी ही हाथ ही आए पैसे को गैर उत्पादक कामों में लगाकर भूखे मरने लगता है। किसान को जमीन के बदले जमीन चाहिए। लेकिन इस पर ओडिशा सरकार मौन है। उसे अनिल अग्रवाल के प्राईवेट विश्वविद्यालय को स्थापित कर देने की चिंता है। उसके लिए वह शदियांे से स्थापित किसानों को विस्थापित करने में भी नहीं झिझक रही।

अनिल अग्रवाल इसको विश्वविद्यालय कहते हैं उनका कहना है कि इस विश्वविद्यालय में प्रत्येक वर्ष एक लाख छात्र भर्ती किए जाएंगे। विश्वविद्यालय के कोर्स आमतौर पर एक साल से लेकर 5 साल के बीच के होते हैं इस हिसाब से किसी भी समय छात्रों की संख्या 3 से 4 लाख के बीच रहेगी ही। इन छात्रों को पढाने के लिए 20 हजार प्राध्यापक रखे जाएंगे और लगभग इतने ही गैर शिक्षक कर्मचारी। इसका अर्थ यह हुआ कि विश्वविद्यालय के नाम से चलाए जाने वाले इस नए शहर में लगभग 5 लाख की जनसंख्या होगी। नवीन पटनायक भी पढे लिखे प्राणी है और देश विदेश में भी घूमते रहते है। इतना तो वे भी जानते होंगे कि 5 लाख की जनसंख्या वाले स्थान शहर कहलाते हैं विश्वविद्यालय नहीं। अनिल अग्रवाल के अनुसार उनके इस नए विश्वविद्यालयी शहर को प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी चाहिए, 600 मेगावाट बिजली चाहिए, भुवनेश्वर हवाई अड्डे से लेकर इस नए शहर तक 4 लेन राष्ट्रीय राजमार्ग चाहिए और उनका यह भी कहना है कि इस राजमार्ग पर उनका संयुक्त स्वामित्व होगा। जमीन खरीदने पर लगने वाली स्टैम्प डयूटी और खरीद फरोख्त पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्सों से मुक्ति चाहिए और विश्वविद्यालय परिसर से 5 किलोमीटर की परिधि के भीतर किसी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित होना चाहिए। इस परिधि में लगभग 117 गांव और पूरी शहर आ जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन गांवों के लोगों की सम्पत्ति उनकी अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रहेगी क्योंकि वे उस पर अपनी इच्छा से या अपनी जरुरत के मुताबिक किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं करवा सकेंगे। यह लगभग इसी प्रकार की शर्तें है जैसी शर्तें कोई विजेता पार्टी पराजित पार्टी पर थोपती हैं।

उड़ीसा सरकार ने अनिल अग्रवाल की इस महत्वकांक्षी योजना को पूरा करने के लिए एमओयू हस्ताक्षरित हो जाने के एक मास के अंदर ही एक उच्चस्तरीय कोर कमेटी का गठन कर दिया जिसने 1 साल के भीतर ही 6 बैठकें करके भूमि अधिग्रहण का कार्य चालू कर दिया। अनिल अग्रवाल फाउंडेशन की नीयत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोर कमेटी की बैठक में जब यह आपत्ति उठायी गयी कि कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्राईवेट कम्पनी के लिए राज्य सरकार किसानों की भूमि का अधिग्रहण नही ंकर सकती तो फाउंडेशन के प्रतिनिधि ने कोर कमेटी को यह गलत सूचना दे दी कि कम्पनी का स्टेटस बदल गया है और अब वह पब्लिक कम्पनी में परिवर्तित हो गयी है और आश्चर्य इस बात का है कि कोर कमेटी ने भी आंखें बंदकर उनकी इस सूचना को स्वीकार कर लिया। न तो इसके लिए कोई प्रमाण मांगा गया और न ही दिए गए प्रमाण की जांच की गयी। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस तथाकथित विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि में 1361 एकड जमीन भगवान जगन्नाथ मंदिर की भी है जिसे मंदिर अधिनियम के अंतर्गत किसी और को नहीं दिया जा सकता। हो सकता है नवीन पटनायक की भगवान जगन्नाथ में आस्था न हो लेकिन उड़ीसा के करोडों लोग जगन्नाथ में आस्था रखते हैं। ओडिशा की संस्कृति जगन्नाथ की संस्कृति के नाम से ही जानी जाती है। जगन्नाथ की भूमि व्यवसायिक हितों के लिए देकर पटनायक ओडिशा की अस्मिता पर ही आधात कर रहे हैं। मुगल काल में और ब्रिटिश काल में मंदिरों के भूमि हडपने के सरकारी प्रयास होते रहते थे ।पटनायक ने ओडिशा में आज भी उसी परम्परा को जीवित रखा और जगन्नाथ मंदिर की आधारभूत अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया।

परन्तु इन तमान विरोधों के बावजूद जुलाई 2009 में ओडिशा विधाानसभा ने वेदांत विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर दिया। इस बिल की सबसे हास्यास्पद बात यह है कि 5 लाख 40 हजार करोड रुपए से स्थापित होने वाले इस शिक्षा उद्योग के मालिकों से केवल 10 करोड रुपए की प्रतिभूति रखने के लिए कहा गया है। सरकार का कहना है कि यदि विश्वविद्यालय के मालिक सरकारी नियमों को पालन नहीं करेंगे तो उनकी यह 10 करोड रुपए की जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी। यह प्रत्यक्ष रुप से सरकार ने अग्रवाल फाउंडेशन को खुली छूट दे दी है कि वे नियमों को माने या न माने उन्होंने डरने की जरुरत नहीं है। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय की 16 सदस्यों की प्रबंध समिति में 5 लोग सरकार के होंगे। दो विधानसभा के प्रतिनिधि और तीन राज्य सरकार के। इन पांचों में से भी फाउंडेशन अपनी इच्छा के लोग नियुक्त नहीं करवा लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। जब फाउंडेशन ने सरकार की उच्चस्तरीय कोर कमेटी से वह सब कुछ नियमविरुद्ध करवा लिया जिसके लिए राज्य के लोकपाल ने सरकार को फटकार लगायी , तो इन 5 मे से कितने फाउंडेशन के पाल के ही नहीं होंगे -कौन कह सकता है।

इस तथाकथित वेदांत विश्वविद्यालय के खिलाफ ओडीसा में ही 16 मामले न्यायालय में लंबित है लेकिन सरकार इससे किसी प्रकार से भी पूरा करने का हठ किए हुए है।नवीन पटनायक सरकार के इस पूरे प्रकल्प मेंशुरु से ही मिलीभगत रही है यह तो ओडिशा के लोकपाल के आदेश से ही स्पष्ट हो गया था। जो उन्होंने 17 मार्च 2010 को पारित किया था जिसमें इस सारे मामले की जांच करवाए जाने का आदेश दिया था। लेकिन फाउंडेशन की गतिविधियों और उसकी नीयत का अंदाजा एक और घटना से भी लगता है। 16 अप्रैल 2010 को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने फाउंडेशन को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया लेकिन उसके एक मास के भीतर ही पर्यावरण मंत्रालय ने इस प्रकल्प को दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र पर रोक लगाकर एक बार फिर फाउंडेशन व नवीन पटनायक को कटघरे में खडा कर दिया है। मंत्रालय ने कहा है -फाउंडेशन द्वारा की गयी अनियमितताओं, गैर कानूनी, अनैतिक एवं विधिविरुद्ध कृत्यों के आरोपों के चलते अनापत्ति प्रमाणपत्र पर रोक लगा दी गयी है।’ अनिल अग्रवाल, उनके फाउंडेशन और उनके इस प्रस्तावित तथाकथित विश्वविद्यालय को लेकर नवीन पटनायक इतनी जल्दी में क्यों है?

अनिल अग्रवाल के इस प्रकल्प का एक और चिंताजनक पहलू है। कहा जाता है कि इसमें इंग्लैंड के चर्च का भी पैसा लगा हुआ है। ओडिशा मतांतरण के मामले में काफी संवेदनशील क्षेत्र रहा है। विदेशी मशीनरियां यहां सर्वाधिक सक्रिय हैं और विदेशों से अकूत धनराशि इन मिशनरियों के पास मतांतरण के कार्य के लिए आती रहती है। यहां तक कि पिछले दिनों चर्च ने मतांतरण का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या तक करवा दी थी , जिससे राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में दंगे भडक उठे थे ।इंग्लैंड का चर्च आखिर इस प्रकल्प में किन स्वार्थो के कारण निवेश कर रहा है। ऐसा भी सुनने में आया है कि चर्च ने किन्हीं मतभेदों के चलते अब इस प्रकल्प से अपना हाथ खीच लिया है। अनिल अग्रवाल फाउंडेशयन और चर्च के इन आपसी सम्बंधों की भी गहरी जांच होनी चाहिए।

अनिल अग्रवाल का ओडिशा में एक बडा खदान साम्राज्य है उसी का विस्तार इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के माध्यम से होने जा रहा है। जिस जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उसमें यूरेनियम और अन्य बहुमूल्य धातुओं के होने की बात कही जा रही है। विश्वविद्यालय के नाम से जैसा कि अग्रवाल ने स्वयं कहा है वे एक हजार बिस्तरों का अस्पताल बनवाएंगे। जाहिर है कि यह अस्पताल प्राईवेट क्षेत्रों में चल रहे अपोलो और एस्कार्ट अस्पतालों के तर्ज पर ही होगा लेकिन अनेक प्रकार की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस पर स्टीकर विश्वविद्यालय का लगा दिया जाएगा। विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस के नाम पर पांच सितारा होटल बन सकते हैं और विद्यार्थियों को जरुरी चीजें मुहैया कराने के नाम पर विश्वविद्यालय में मॉल खोले जा सकते हैं। जैसा कि ओडिशा की एक सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.जतिन मोहंती ने कहा है कि इस नए शहर में जिसकी जनसंख्या 5 लाख के आस पास होगी प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी की क्या जरुरत है। यदि एक व्यक्ति एक दिन में 80 लीटर पानी का भी प्रयोग भी करता है तो यह पानी 14 लाख लोगों के काम आ सकता है। मोहंती कहते है जाहिर है यह पानी विश्वविद्यालय के नाम पर बनने वाले आलीशान होटलों, आरामगाहों और विश्वविद्यालय द्वारा खेलों के विकास के नाम पर बनाए जाने वाले गोल्फकोर्सो के लिए प्रयोग किया जाएगा। ’’ विश्वविद्यालय पर सरकार का तो कोई नियंत्रण होगा नहीं । मनमानी फीस वसूलकर लूट खसूट का बाजार गरम होगा और जाहिर है ऐसे विश्वविद्यालय में ओडिशा के आम आदमी का बच्चा तो झांक भी नहीं सकेगा।

वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी बंगाल सरकार ने टाटा काउद्योग स्थापित करने के लिए नंदीगा्रम के किसानों पर गोलियां चलवाई और ओडिशा में विश्वविद्यालय के नाम पर अनिल अग्रवाल का खदान साम्राज्य स्थापित करने के लिए राज्य सरकार हजारों हजार किसानों को बेघर करने पर तुली हुई है और राज्य के प्राकृतिक स्त्रोतों को लूट के लिए प्राईवेट हाथों मेंं सौंप रही है। निश्चय ही इस लूट में कुछ हिस्सा उनका भी होगा ही जो निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। अभी तक तो यही लगता है कि जब अनिल अग्रवाल और ओडिशा की आमजनता के बीच अपने-अपने हितों को लेकर टकराव होगा तो राज्य सरकार अनिल अग्रवाल फाउंडेशन के साथ खडी दिखाई देगी। लेकिन लोकतंत्र में आखिर लोकलाज भी कोई चीज होती है इसलिए, सरकार ने ढाल के तौर पर वेदांत विश्वविद्यालय को आगे किया हुआ है।