शिखर पर तमाम जगह खाली है लेकिन वह पहुचने की लिफ्ट कही नहीं है वहां एक एक कदम सीढ़ियों के रस्ते ही जाना होगा

Wednesday, June 16, 2010

सर्कस: अस्तित्व पर संकट


केशव यादव

हाईटेक दौर ने आज मनोरंजन के उस साधन पर अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है जो कभी चकाचौंध भरे मंच पर अपने रोमांचक करतब और कारनामों से दर्शकों को हैरान ही नहीं करता था, हंसाता भी था और जानवरों को अपने इशारों पर नचाता था। यह है सर्कस, जिसे इतिहास के पन्नों में सिमट जाने का डर सता रहा है। एक समय था जब सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था। लेकिन आज टेलीविजन तथा इंटरनेट के दौर में सर्कस का मनोरंजन हाशिए पर पहुंच गया है। दर्शकों और समुचित मंच के अभाव के कारण प्रतिभाशाली कलाकार सर्कस से दूर होते जा रहे हैं।
अपोलो सर्कस के प्रबंधक रमेश तिरूला कहते हैं ''पहले सर्कस जिस शहर में जाता था वहां धूम मच जाती थी। लगभग हर दिन सर्कस के लोग पशुओं को लेकर शहर में जुलूस निकालते थे। जोकर भी साथ होते थे। यह सब प्रचार के लिए होता था। अब तो लाउडस्पीकर लेकर शहर में निकल ही नहीं सकते।'' रमेश बताते हैं ''जानवर सर्कस का मुख्य आकर्षण होते थे। अब सरकार ने सर्कस में जानवरों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। टीवी, वीडियो गेम और इंटरनेट ने रही सही कसर पूरी कर दी। आखिर दर्शक क्या देखने के लिए सर्कस आएंगे- सर्कस से कोई क्यों जुड़ना चाहेगा।'' सर्कस उद्योग से जुड़े लोग मानते हैं कि सरकारी समर्थन नहीं मिलने और नई प्रतिभाओं की कमी भी इस उद्योग को लाचार बना रही है जिसके कारण इस उद्योग से जुड़े लोग अन्यत्र विकल्प तलाश रहे हैं।

भारत में अब चंद सर्कस कम्पनियां ही रह गई हैं जिन्हें भी बदलते माहौल और लोगों की रूचि में बदलाव की वजह से अपने अस्तित्व की सबसे कठिन लड़ाई लड़नी पड़ रही है। पिछली करीब तीन शताब्दियों से दर्शकों पर अपना जादू चला रहे सर्कस की दयनीय स्थिति के बारे में जेमिनी सर्कस के मालिक अजय शंकर ने बताया ''सरकार का समर्थन नहीं मिलने की वजह से सर्कस खत्म हो रहे हैं। सर्कस के कलाकारों की खानाबदोश जिंदगी और स्थायित्व की कमी के कारण भी स्थिति बहुत विषम हो गई है।'' उन्होंने कहा''सरकार को सर्कस अकादमी का गठन करना चाहिए ताकि न सिर्फ नए कलाकारों की प्रतिभा को निखारा जा सके बल्कि दम तोड़ रहे इस पारम्परिक माध्यम में नए खून का संचार किया जा सके।''

शंकर ने कहा कि चीन और अमेरिका की तरह भारत में भी सर्कस अकादमी खोली जानी चाहिए ताकि न सिर्फ नए कलाकारों की प्रतिभा को निखारा जा सके बल्कि सर्कस में लोगों का मनोरंजन करके अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा गुजार देने वाले लोगों को प्रशिक्षक के तौर पर रोजगार भी दिया जा सके। रमेश कहते हैं ''रूस में सरकार ने सर्कस को पुनर्जीवित करने के लिए प्रमुख शहरों में केंद्र स्थापित किए हैं जहां पूरे साल सर्कस चलता है। यहां भी ऐसे ही प्रयास किए जाने चाहिए।'' सर्कस रूपहले पर्दे पर और छोटे पर्दे पर भी अपना जादू बिखेर चुका है। राजकपूर की ''मेरा नाम जोकर'' और छोटे पर्दे पर शाहरुख खान अभिनीत धारावाहिक ''सर्कस'' को लोगों ने खूब पसंद किया। शंकर ने कहा कि अगर समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो मनोरंजन का यह अनोखा माध्यम इतिहास के पन्नों में खो जाएगा।

गोवंश आधारित अर्थ-व्यवस्था के लिए आगे आएं उद्योगपति



आज देश में गोरक्षा के अनेक प्रयास हो रहे हैं। देश के अनेक राज्यों ने गोवंश बंदी के कानून भी पारित किए हैं। हाल ही में कर्नाटक राज्य ने भी विधानसभा में गोवध बंदी का ऐतिहासिक कानून पारित कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि देश के उन राज्यों में जहां पहले से गोहत्या बंदी के कानून बने हुए हैं, वहां भी धड़ल्ले से गोहत्या का कारोबार चल रहा है। इससे स्पष्ट है कि केवल कानून बना देने से गोवंश को कटने से रोका जाना असंभव है। गोवंश के पर्यावरणीय, आर्थिक एवं सामाजिक महत्व के व्यावहारिक रूप का क्रियान्वयन आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

वर्तमान समय में गोहत्या निषेध कानून के बावजूद पुलिस, प्रशासन और गोहत्यारों की मिलीभगत से गोहत्या और गोतस्करी का कारोबार देश के अनेक प्रांतों में धड़ल्ले से जारी है। विशेषकर, उत्तर भारत के अनेक राज्यों में, जहां गोहत्या अपराध है, उन राज्यों से रोजाना बड़ी संख्या में गोवंश ट्रकों में लादकर अवैध रूप से कटने के लिए बंगलादेश की सीमा में भेजा जा रहा है। जानकारों के मुताबिक, गोहत्यारे और गोमांस के व्यवसायी गोहत्या एवं गोतस्करी निरोधक कानूनों की तोड़ निकालने के सभी संभव उपाय कर लेने में सक्षम हैं। देश में संस्थागत रूप ले चुका भ्रष्टाचार इसके पीछे की एक प्रमुख वजह है।

इस संदर्भ में गोरक्षकों के सामने चुनौती इस बात की है कि जैसे भी हो गोवंश को गोहत्यारों के हाथों में पहुंचने ही न दिया जाए। गोरक्षा का काम गोशालाओं के द्वारा संभव है। गोशालाओं में गायें उम्र भर सुरक्षित ढंग से रखी जा सकती हैं। वहां अनेक उत्पादक कार्यों में गोवंश का प्रभावी ढंग से उपयोग हो सकता है और हो रहा है। लेकिन अगर देश में गोशालाओं की वर्तमान क्षमता और उनके संसाधनों को आंका जाए तो गोशालाएं पूरे तौर पर बड़े पैमाने पर गोवंश रखने में असमर्थ हैं।

उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में आज एक करोड़ चौवन लाख के लगभग गोवंश शेष है। इसमें से मात्र एक लाख पच्चीस हजार गोवंश लगभग 250 गोशालाओं में रह रहा है। इस प्रकार एक करोड़ तिरपन लाख गोवंश तो आज भी अन्नदाता किसान और पशुपालकों के पास ही है।
छत्तीसगढ़ में एक करोड़ अट्ठाइस लाख अट्ठासी हजार गोवंश है जिसमें से मात्र ग्यारह हजार गोवंश लगभग 62 गोशालाओं में सुरक्षित है। शेष एक करोड़ अट्ठाइस लाख सतहत्तर हजार गोवंश तो समाज अर्थात गांवों में पशुपालकों के पास है।

गुजरात राज्य में एक करोड़ नौ लाख गोवंश है जिसमें से मात्र दो लाख के करीब गोवंश राज्य के 82 गोशालाओं में शरण लिए हैं। शेष गोवंश गांवों में या कस्बों में पशुपालकों के पास है।

हरियाणा राज्य में लगभग 22 लाख गोवंश है। जिसमें से डेढ़ लाख गोवंश 255 गोशालाओं में सुरक्षित हैं। शेष ग्रामों और कस्बों में हैं।

हिमाचल प्रदेश में 29 लाख गोवंश है जिसमें से मात्र 6000 गोवंश 60 गोशालाओं के पास हैं। शेष गोवंश परिवार आश्रित हैं।

कर्नाटक राज्य में एक करोड़ उन्तालीस लाख गोवंश हैं, जिसमें से 55 हजार गोवंश 120 गोशालाओं के पास हैं। शेष समाज के पास हैं।

महाराष्ट्र में करीब दो करोड़ से अधिक गोवंश हैं जिसमें से 156 गोशालाओं में पचास हजार के करीब गोवंश रहता है। शेष गोवंश गांवों और निजी तौर पर पशुपालकों के पास हैं।

मध्य प्रदेश में तीन करोड़ के लगभग गोवंश हैं जिसमें सेमात्र 80 हजार गोवंश लगभग 500 गोशालाओं में निवास करता हैं। शेष ग्रामों और नगरों में परिवार आश्रित हैं।

ओडिशा में भी लगभग डेढ़ करोड़ गोवंश हैं जिसमें से मात्र 6000 गोवंश 6 गोशालाओं में रह रहा है।

पंजाब में पच्चीस लाख गोवंश हैं जिसमें से दो लाख पैतीस हजार गोवंश 203 गोशालाओं में रह रहा है।

राजस्थान में एक करोड़ 66 लाख गोवंश हैं जिसमें से 12 लाख गोवंश 4000 गोशालाओं में रह रहा है।

उत्तर प्रदेश में दो करोड़ 65 लाख गोवंश हैं जिसमें से मात्र 56 हजार गोवंश 351 गोशालाओं के पास है।

कुल मिलाकर देश में इस समय गोवंश की कुल संख्या पच्चीस करोड़ 11 लाख बयालीस हजार के लगभग है। इसमें से मात्र 35-36 लाख गोवंश गोशालाओं में सुरक्षित हैं। स्पष्ट है कि साढ़े चौबीस करोड़ गोवंश तो समाज अर्थात ग्राम, कस्बे और नगरों में निवास करने वाले पशुपालकों और नागरिकों के दरवाजे पर ही आश्रय लिए हुए है।

स्वाभाविक ही कहा जा सकता है कि समाज में सक्रिय गोवंश के दलालों और विक्रेताओं के द्वारा, चाहे प्रवंचनापूर्वक अथवा धन के लोभ में, गोवंश गोहत्यारों के हाथ में पहुंच रहा है।
इसमें अधिकांशत: वह गोवंश शामिल रहता है जो या तो बूढ़ा है अथवा जिन गायों ने दूध देना बंद कर दिया है। निरपयोगी गायों को पशुपालक मात्र कुछ रूपयों के लिए गोहत्यारों के हाथों में सौंप रहे हैं।

दूसरे, देश में व्यवस्थित रूप से गोशालाओं का तंत्र अभी खड़ा होने में समय है। गोशालाओं के उन्नयन और उन्हें आधुनिक गो-कृषि, चिकित्सा और ऊर्जा तकनीकी के साथ समन्वित तरीके से काम करने में व्यापक पैमाने पर विशेषज्ञों के मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि देश में जैविक कृषि, गोदुग्ध उत्पादन, पंचगव्य आधारित चिकित्सा, ऊर्जा जरूरतों और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं में गोमूत्र और गोमय का विधिपूर्वक प्रयोग व्यापक पैमान पर प्रारंभ हो सके। इस कार्य में गोशालाओं की प्रासंगिकता समय सिद्ध है।

यहां प्रश्न उठता है कि देश में गोशालाएं क्या व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन का माध्यम बन सकती हैं? वर्तमान परिस्थिति और प्रयोगों को देखते हुए कहा जा सकता है कि गोशालाएं देश में दैनिक जीवनोपयोगी अनेक वस्तुओं के निर्माण का आधारभूत केंद्र बनने की ओर तेजी से अग्रसर हैं।

यहां आवश्यकता इस बात की है कि गोशालाओं का प्रबंधन कुशलतापूर्वक हो। आधुनिक प्रबंधन विधा का प्रयोग कर, गोवंश के आधार पर निर्मित उत्पादों के समुचित विज्ञापन एवं विपणन की व्यवस्था कर हम गोवंश को लाभ आधारित उद्यमों में एक प्रमुख उद्यम बना सकते हैं।

विशेष रूप से जो गोवंश बड़ी मात्रा में समाज और परिवार आश्रित है, उसकी रक्षा का समुचित उपाय करने की जरूरत है। यह बात ठीक है गोरक्षा के पीछे गाय के प्रति जनसाधारण की धार्मिक आस्था का विशेष महत्व है। उसका गुणकारी दूध भी एक बड़ा कारण है। गोवंश के गुणों से मुग्ध होकर बड़े पैमाने पर भारतीय समाज गाय को घर पर पालना शुभ एवं पवित्र कार्य मानते हैं। भारतीय ग्राम आधुनिकता की इस आंधी में आज भी गोरक्षा के स्वधर्म पर अडिग दिखाई देते हैं।

लेकिन बड़ा संकट बैलों के सामने हैं जिन्हें ट्रैक्टर ने रोजगार विहीन कर दिया है। दूध न देने वाली गाय और बैल आज अनेक पशुपालकों को अपने ऊपर बोझ लगने लगते हैं। इस स्थिति के निवारण का उपाय यही है कि गोवंश पालकों को गोमूत्र और गोमय का उचित मूल्य मिले।
जिस दिन गोमूत्र और गोमय की उचित कीमत किसान और गोपालक को मिलने लगेगी तो उसकी समस्या का निवारण स्वत: हो जाएगा। एक ओर वह गोदुग्ध के उत्पादन के लिए गाय पालने का कार्य करेगा तो दूसरी ओर गोमूत्र और गोबर की उचित कीमत मिलने पर उसके लिए दुग्धविहीन गाय और बैल का पालन करना भी सहज हो जाएगा। इस प्रकार गोवंश को गोहत्यारों के हाथों में जाने से रोकना एक आसान कार्य हो सकता है।

यही वह बिंदु है जहां भारतीय व्यापारियों की श्रेष्ठ मेधा और प्रतिभा की परीक्षा होनी है। भारत के व्यापारी चिरकाल से गोसेवा और गोरक्षा के कार्य में अग्रणी रहे हैं। लेकिन आधुनिकता की आंधी में उन्होंने किंचित ही सही गोरक्षा के अपने स्वाभाविक धर्म को मात्र चंदा और गोपूजन तक सीमित कर लिया लेकिन गोवंश आधारित उद्यम भी मुनाफे के साथ चल सकते हैं, इस अवधारणा के प्रति भारतीय व्यापारियों ने उपेक्षापूर्ण रवैया अपना लिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि आजादी के तत्काल बाद गोवंश आधारित उद्यमों का कोई पुरसाहाल नहीं रहा। गोसेवकों को चंदा तो मिला लेकिन गो आधारित उद्यमों में जिस मात्रा में निवेश होना चाहिए, वह नहीं हुआ। गोवंश आधारित उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने में जिस कुशलता की आवश्यकता होती है, उससे गोवंश वंचित हो गया।

आज जब संपूर्ण विश्व में जैविक अन्न की मांग बढ़ गई है, शस्टेनेबल विकास और जीवन पद्धति के प्रति लोग संवेदनशील हुए हैं, गोमूत्र और गोबर से अनेक बहुमूल्य उत्पाद तैयार होने लगे हैं- जैसे- गोबरगैस को सिलिंडर में भरकर उसके विपणन का कार्य देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है।

इसके अतिरिक्त जैविक खेती से उपजे अन्न के लिए समुचित बाजार की व्यवस्था, गोमूत्र के कीटनाशक, गोमूत्र फिनायल, गोमूत्र आधारित दवाएं, गोबर के पार्टिकल, गोबर से बने प्लाईवुड, गोबर सहित पंचगव्य से बनने वाली मूर्तियां, गोबर मिश्रित पदार्थ का कागज, गत्ते, खिलौने, गोबर के प्रयोग से निर्मित विविध प्रकार की खाद आदि सैकड़ों किस्म के उत्पाद आज विविध रूप में सफलतापूर्वक बाजार में अपना स्थान बना रहे हैं।

गोवंश आधारित उत्पाद का निर्माण, विपणन एवं विज्ञापन शुद्ध रूप से मुनाफे पर आधारित औद्योगिक एवं व्यापारिक कार्य है। इस कार्य में कुशल उद्यमियों एवं व्यापारियों की सक्रियता समय की मांग है। गोमूत्र और गोबर की उचित कीमत गोपालक को तभी मिल सकती है जबकि गोवंश आधारित उत्पाद व्यापक पैमाने पर अपना बाजार बना सकें।

आज सामान्य तौर पर अनेक स्थानों पर 5 रूपये प्रति लीटर गोमूत्र और चार से पांच रूपये प्रति किलो गोबर की कीमत गोपालकों को मिलने लगी है। यह कार्य अगर देश के सभी प्रमुख राज्यों में भलीभांति प्रारंभ हो जाए तो गोवंश की रक्षा में यह मील का पत्थर बन सकता है। देश के अनेक राज्यों में इस प्रकार से गोमूत्र एवं गोबर की बिक्री कर गोपालक एवं गोशालाएं आय अर्जन करने लगी हैं।

एक गाय प्रतिदिन न्यूनतम 5 लीटर मूत्र एवं 7 से 8 किलो तक गोबर देती है, इस प्रकार प्रति गाय या बैल गोपालक को प्रतिदिन न्यूनतम 100 रूपये तक सहज ही आय हो सकती है। संप्रति 24 करोड़ गोवंश देश के ग्रामों और कस्बों में गोपालकों के पास है, उसकी रक्षा की दिशा में गोमूत्र और गोबर का बिक्रय क्रांतिकारी रूप से सहायक हो सकता है।

गोवंश आधारित उत्पादों के निर्माण एवं विक्रय के काम को कुशलतापूर्वक करने और इसे विज्ञापित करने में कुशल उद्यमियों की ओर आज गोमाता टकटकी लगाए देख रही है। कभी समय था गोमाता ने अपनी रक्षा के लिए सम्राटों के दरवाजे खटखटाए, संतों-धर्मात्माओं के सामने गोमाता ने जीवन रक्षा की गुहार लगाई, धर्म के आधार पर गोरक्षा के लिए तत्पर समाज का सहारा लिया, लेकिन इस कलिकाल में जब घोर आर्थिक युग आ गया, जब धन के लिए पिता-पुत्र, भाई-भाई तक एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं, तब गोमाता रक्षा के लिए किसके पास जाए? जाहिर है, जब अर्थ यानी धन की चाहत ने उसे विनाश की ओर धकेला है तो धन ही उसके बचने का आधार भी बन सकता है। यहीं पर हमारे व्यापारिक वर्ग पर गोरक्षा का महान दायित्व आ जाता है

Tuesday, June 15, 2010

नंदीग्राम से वेदांत विश्वविद्यालय तक- सरकारी दमन की एक ही गाथा



डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री
12 मई 2004 को मुम्बई में वर्ली में रहने वाले चार लोगों ने मिलकर भारतीय कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत स्टरलाईट फाउंडेशन का पंजीयन करवाया। इस धारा के अंतर्गत पंजीयन होने वाली कम्पनियां प्राइवेट होती हैं और उनका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनसेवा करना होता है। फाउंडेशन का पंजीयन करानेवाले ये परोपकारी जीव द्वारकादास अग्रवाल का बेटा अनिल कुमार अग्रवाल और उनकी बेटी सुमन डडवानिया हैं। इनके इस फाउंडेशन में अनिल कुमार अग्रवाल के दादा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल भी हैं। इस प्रकार अग्रवाल परिवार के 4 सदस्यों को स्टरलाईट फाउंडेशन प्रारम्भ हुआ। कम्पनी का पंजीयन करवाते समय यह बताना आवश्यक होता है कि कम्पनी में किसी भी प्रकार की उन्नीस -इक्कीस हो जाने की स्थिति में क्षति की भरपाई करने की किसकी कितनी जिम्मेदारी होगी। इन चारों महानुभावों ने घोषित किया कि प्रत्येक की जिम्मेदारी केवल 5 हजार रुपए तक की होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि स्टरलाईट फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों ने केवल 20 हजार रुपए की जिम्मेदारी को स्वीकार किया। कुछ समय के बाद इस फाउंडेशन ने अपना नाम बदलकर नया नाम वेदांत फाउंडेशन रख दिया।

अनिल अग्रवाल के इस वेदांत फाउंडेशन की गाथा शुरु करने से पहले इसके बारे में थोड़ा जान लेना लाभदायक रहेगा। अग्रवाल इंग्लैंड में वेदांत के नाम से एक कम्पनी चलाते हैं जो अनेक कारणों से काली सूची में दर्ज है। उड़ीसा में अग्रवाल खदानों के धंधे से जुडे हुए हैं जिसको लेकर उन पर अनेक आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं। अग्रवाल उड़ीसा में ही बॉक्साईट की खदानों से जुडे हुए हैं और उन पर खदान के कार्य में अनियमितता बरतने के कारण अनेक मुकदमे चल रहे हैं। अनिल अग्रवाल कैसे फकीरी से अमीरी में दाखिल हुए यह एक अलग गाथा है। अनिल अग्रवाल के वेदांता रिसोर्सेज का नवीन पटनायक से पुराना रिश्ता है अग्रवाल उड़ीसा में वेदांत एल्युमिनियम प्रोजेक्ट चलाते हैं। अरबों रुपए की खदानों का मामला है और खदानों के इस मामले में कम्पनी कितना गड़बड़ घोटाला कर रही है, उड़ीसा के प्राकृतिक स्त्रोंतों को लूट रही है और नियम कानूनों की धज्यियां उडाकर अपना भंडार भर रही है इसका एक नमूना 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गयी केन्द्रीय उच्च शक्ति कमेटी द्वारा न्यायालय को सौंपी गयी रपट से अपने आप स्पष्ट हो जाता है। किस प्रकार अनिल अग्रवाल की खदान कम्पनी ने राज्य सरकार की मिली भगत से झूठ बोला, तथ्यों एवं प्रमाणों को बदला और विशेषज्ञों और उड़ीसा की जनता को जानबूझकर बुद्धू बनाने का प्रयास किया। कम्पनी अपनी गतिविधियों को छुपाना चाहती थी। सरकार इसमें सहायक हो रही थी। इस कमेटी ने सर्वोच्च न्यायालय को संस्तुति की कि अग्रवाल के एल्युमिनियम रिफाईनरी प्रोजेक्ट को जिस प्रकार पर्यावरण सम्बंधी एवं वनक्षेत्र में कार्य करने की अनुमति मिली है उससे इस बात का संदेह गहराता है कि राज्य सरकार इसमें मिली हुई है। जनहितों एवं राष्टृहितों का ध्यान नहीं रखा गया। इसका अर्थ यह हुआ कि अनिल अग्रवाल और उनकी कम्पनियां ओडिशा में क्या कर रहीं हैं यह मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से छुपा हुआ नहीं था। लेकिन शायद नवीन पटनायक के हित उड़ीसा के बजाय कहीं अन्यत्र रहते हैं।

वेदांत फाउंडेशन ने अप्रैल 2006 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को एक पत्र लिखकर यह सूचित किया कि फाउंडेशन पूरी, कोणार्क, मैरीना बीच के साथ एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाना चाहता है जिसका नाम वेदांत विश्वविद्यालय होगा। क्योंकि विश्वविद्यालय बहुत बडा होगा और बकौल अनिल अग्रवाल उसमें से नोबल पुरस्कार विजेता निकला करेंगे इसलिए, उसे इस पवित्र काम के लिए 10 हजार एकड जमीन की जरुरत होगी। शायद, अग्रवाल ने यह भी कहा होगा कि यह उड़ीसा के लिए अत्यंत गौरव का विषय होगा। उड़ीया न जानने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक उड़ीसा के गौरव की बात सुनकर चुप कैसे रह सकते थे। और फिर जब यह प्रस्ताव एक ही परिवार के दादा और पौत्र ने साथ मिलकर दिया हो तो उसकी अवहेलना कैसे की जा सकती थी। आजकल ऐसे संयुक्त परिवार बचे ही कितने हैं। यह अलग बात है नवीन पटनायक ने अग्रवाल परिवार से यह नहीं पूछा कि विश्वविद्यालय खोलने से पहले अपने कहीं कोई स्कूल -इस्कूल भी चलाया है या नहीं। खैर अग्रवाल के मित्र नवीन पटनायाक तुरंत सक्रिय हुए और पत्र मिलने के दो महीने के अंदर -अंदर उनके प्रिसीपल सेक्रेटरी ने 13 जुलाई को वेदांत विश्वविद्यालय खोलने के लिए फाईल चला दी। फाईल कितनी तेजी से दौडी होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके 5 दिन बाद ही 19 जुलाई का उड़ीसा सरकार ने फाउंडेशन के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर कर दिए।। यह अलग बात है कि उड़ीसा के लोकपाल ने बाद में अपने एक आदेश में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि फाउंडेशन की ओर से किसने हस्ताक्षर किए, यह स्पष्ट नहीं है क्यांेकि हस्ताक्षर पढे ही नहीं जा रहे। साथ ही कि यह एमओयू अनिल अग्रवाल फाउंडेशन को किसी समझौते में भी नहीं बांधता। यानी सरकार फाउंडेशन के लिए सबकुछ करेगी लेकिन फाउंडेशन किसी बंधन में बंधा नहीं रहेगा। इसी बीच अनिल अग्रवाल ने वेदांत फाउंडेशन का नाम बदलकर उसका नया नाम अपने नाम पर ही रख लिया।

अब सरकार को अनिल अग्रवाल या उनके फाउंडेशन के लिए 10 हजार एकड जमीन मुहैया करवानी थी, बहुत ज्यादा हो -हल्ला मचने के कारण अग्रवाल ने उड़ीसा सरकार पर एक दया कि और वे लगभग 6 हजार 2 सौ एकड प्राप्त करने पर ही उड़ीया गौरव को बचाने के लिए सहमत हो गए। अनिल अग्रवाल जानते है कि अपने इस नए शिक्षा उद्योग के लिए वे स्वयं भूमि नहीं खरीद सकते थे। किसान अपनी भूमि बेच या न बेचे यह उस पर निर्भर है। वैसे भी यदि किसान अपनी कृषि योग्य जमीन बेच देगा तो भूखों नहीं मरेगा तो और क्या करेगा। दूसरे अग्रवाल यह भूमि खुले बाजार में खरीदते तो निश्चय ही कीमत कहीं ज्यादा देनी पडती। इसके बावजूद भी एकसाथ लगभग 6-7 हजार एकड भूमि मिल पाना भी सम्भव नहीं है। तब एक ही रास्ता बचता था कि नवीन पटनायक इस भूमि का अधिग्रहण करने के बाद यह भूमि अपने मित्र अनिल अग्रवाल को इस शिक्षा उद्योग के लिए सौंप दें। इससे, एक तो भूमि की ही ज्यादा सस्ती कीमतें मिल जाती दूसरे भूमि अधिग्रहण के झंझट का सरकार को ही सामना करना पडता। इसलिए, अनिल अग्रवाल फाउंडेशन ने प्रस्ताव तो विश्वविद्यालय का रखा लेकिन उसका अर्थ पूरी कोणार्क मार्ग पर एक बहुत बडा नया प्राईवेट शहर बसाना है जिसकी मिल्कीयत अग्रवालों के पास रहती। विश्वविद्यालय का नाम देने से एक और सुभीता भी है। इस नए शहर के लिए शिक्षा के नाम पर सारी आधारभूत संरचना ओडिशा सरकार ही उपलब्ध करवा देगी। प्रस्तावित नया शहर अनिल अग्रवाल का होगा और उसे बसाने का खर्चा सरकार उठाएगी। जो भूमि अधिग्रहित की जा रही है उसमें साल मे तीन मौसम में खेती होती है। वह अत्यंत उपजाउ जमीन है। भूमि के अधिग्रहण से लगभग 50 हजार लोग उजड जाएंगे। उनके बसाने की सरकार के पास कोई योजना नहीं है। सरकार समझती है कि किसान को उसकी भूमि का मुआवजा भर देने से कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। एक व्यवसायी तो मुआवजे के पैसे नए स्थान पर अपना व्यवसाय शुरु कर सकता है लेकिन खेती करने वाला किसान जल्दी ही हाथ ही आए पैसे को गैर उत्पादक कामों में लगाकर भूखे मरने लगता है। किसान को जमीन के बदले जमीन चाहिए। लेकिन इस पर ओडिशा सरकार मौन है। उसे अनिल अग्रवाल के प्राईवेट विश्वविद्यालय को स्थापित कर देने की चिंता है। उसके लिए वह शदियांे से स्थापित किसानों को विस्थापित करने में भी नहीं झिझक रही।

अनिल अग्रवाल इसको विश्वविद्यालय कहते हैं उनका कहना है कि इस विश्वविद्यालय में प्रत्येक वर्ष एक लाख छात्र भर्ती किए जाएंगे। विश्वविद्यालय के कोर्स आमतौर पर एक साल से लेकर 5 साल के बीच के होते हैं इस हिसाब से किसी भी समय छात्रों की संख्या 3 से 4 लाख के बीच रहेगी ही। इन छात्रों को पढाने के लिए 20 हजार प्राध्यापक रखे जाएंगे और लगभग इतने ही गैर शिक्षक कर्मचारी। इसका अर्थ यह हुआ कि विश्वविद्यालय के नाम से चलाए जाने वाले इस नए शहर में लगभग 5 लाख की जनसंख्या होगी। नवीन पटनायक भी पढे लिखे प्राणी है और देश विदेश में भी घूमते रहते है। इतना तो वे भी जानते होंगे कि 5 लाख की जनसंख्या वाले स्थान शहर कहलाते हैं विश्वविद्यालय नहीं। अनिल अग्रवाल के अनुसार उनके इस नए विश्वविद्यालयी शहर को प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी चाहिए, 600 मेगावाट बिजली चाहिए, भुवनेश्वर हवाई अड्डे से लेकर इस नए शहर तक 4 लेन राष्ट्रीय राजमार्ग चाहिए और उनका यह भी कहना है कि इस राजमार्ग पर उनका संयुक्त स्वामित्व होगा। जमीन खरीदने पर लगने वाली स्टैम्प डयूटी और खरीद फरोख्त पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्सों से मुक्ति चाहिए और विश्वविद्यालय परिसर से 5 किलोमीटर की परिधि के भीतर किसी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित होना चाहिए। इस परिधि में लगभग 117 गांव और पूरी शहर आ जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन गांवों के लोगों की सम्पत्ति उनकी अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रहेगी क्योंकि वे उस पर अपनी इच्छा से या अपनी जरुरत के मुताबिक किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं करवा सकेंगे। यह लगभग इसी प्रकार की शर्तें है जैसी शर्तें कोई विजेता पार्टी पराजित पार्टी पर थोपती हैं।

उड़ीसा सरकार ने अनिल अग्रवाल की इस महत्वकांक्षी योजना को पूरा करने के लिए एमओयू हस्ताक्षरित हो जाने के एक मास के अंदर ही एक उच्चस्तरीय कोर कमेटी का गठन कर दिया जिसने 1 साल के भीतर ही 6 बैठकें करके भूमि अधिग्रहण का कार्य चालू कर दिया। अनिल अग्रवाल फाउंडेशन की नीयत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोर कमेटी की बैठक में जब यह आपत्ति उठायी गयी कि कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्राईवेट कम्पनी के लिए राज्य सरकार किसानों की भूमि का अधिग्रहण नही ंकर सकती तो फाउंडेशन के प्रतिनिधि ने कोर कमेटी को यह गलत सूचना दे दी कि कम्पनी का स्टेटस बदल गया है और अब वह पब्लिक कम्पनी में परिवर्तित हो गयी है और आश्चर्य इस बात का है कि कोर कमेटी ने भी आंखें बंदकर उनकी इस सूचना को स्वीकार कर लिया। न तो इसके लिए कोई प्रमाण मांगा गया और न ही दिए गए प्रमाण की जांच की गयी। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस तथाकथित विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि में 1361 एकड जमीन भगवान जगन्नाथ मंदिर की भी है जिसे मंदिर अधिनियम के अंतर्गत किसी और को नहीं दिया जा सकता। हो सकता है नवीन पटनायक की भगवान जगन्नाथ में आस्था न हो लेकिन उड़ीसा के करोडों लोग जगन्नाथ में आस्था रखते हैं। ओडिशा की संस्कृति जगन्नाथ की संस्कृति के नाम से ही जानी जाती है। जगन्नाथ की भूमि व्यवसायिक हितों के लिए देकर पटनायक ओडिशा की अस्मिता पर ही आधात कर रहे हैं। मुगल काल में और ब्रिटिश काल में मंदिरों के भूमि हडपने के सरकारी प्रयास होते रहते थे ।पटनायक ने ओडिशा में आज भी उसी परम्परा को जीवित रखा और जगन्नाथ मंदिर की आधारभूत अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया।

परन्तु इन तमान विरोधों के बावजूद जुलाई 2009 में ओडिशा विधाानसभा ने वेदांत विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर दिया। इस बिल की सबसे हास्यास्पद बात यह है कि 5 लाख 40 हजार करोड रुपए से स्थापित होने वाले इस शिक्षा उद्योग के मालिकों से केवल 10 करोड रुपए की प्रतिभूति रखने के लिए कहा गया है। सरकार का कहना है कि यदि विश्वविद्यालय के मालिक सरकारी नियमों को पालन नहीं करेंगे तो उनकी यह 10 करोड रुपए की जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी। यह प्रत्यक्ष रुप से सरकार ने अग्रवाल फाउंडेशन को खुली छूट दे दी है कि वे नियमों को माने या न माने उन्होंने डरने की जरुरत नहीं है। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय की 16 सदस्यों की प्रबंध समिति में 5 लोग सरकार के होंगे। दो विधानसभा के प्रतिनिधि और तीन राज्य सरकार के। इन पांचों में से भी फाउंडेशन अपनी इच्छा के लोग नियुक्त नहीं करवा लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। जब फाउंडेशन ने सरकार की उच्चस्तरीय कोर कमेटी से वह सब कुछ नियमविरुद्ध करवा लिया जिसके लिए राज्य के लोकपाल ने सरकार को फटकार लगायी , तो इन 5 मे से कितने फाउंडेशन के पाल के ही नहीं होंगे -कौन कह सकता है।

इस तथाकथित वेदांत विश्वविद्यालय के खिलाफ ओडीसा में ही 16 मामले न्यायालय में लंबित है लेकिन सरकार इससे किसी प्रकार से भी पूरा करने का हठ किए हुए है।नवीन पटनायक सरकार के इस पूरे प्रकल्प मेंशुरु से ही मिलीभगत रही है यह तो ओडिशा के लोकपाल के आदेश से ही स्पष्ट हो गया था। जो उन्होंने 17 मार्च 2010 को पारित किया था जिसमें इस सारे मामले की जांच करवाए जाने का आदेश दिया था। लेकिन फाउंडेशन की गतिविधियों और उसकी नीयत का अंदाजा एक और घटना से भी लगता है। 16 अप्रैल 2010 को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने फाउंडेशन को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया लेकिन उसके एक मास के भीतर ही पर्यावरण मंत्रालय ने इस प्रकल्प को दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र पर रोक लगाकर एक बार फिर फाउंडेशन व नवीन पटनायक को कटघरे में खडा कर दिया है। मंत्रालय ने कहा है -फाउंडेशन द्वारा की गयी अनियमितताओं, गैर कानूनी, अनैतिक एवं विधिविरुद्ध कृत्यों के आरोपों के चलते अनापत्ति प्रमाणपत्र पर रोक लगा दी गयी है।’ अनिल अग्रवाल, उनके फाउंडेशन और उनके इस प्रस्तावित तथाकथित विश्वविद्यालय को लेकर नवीन पटनायक इतनी जल्दी में क्यों है?

अनिल अग्रवाल के इस प्रकल्प का एक और चिंताजनक पहलू है। कहा जाता है कि इसमें इंग्लैंड के चर्च का भी पैसा लगा हुआ है। ओडिशा मतांतरण के मामले में काफी संवेदनशील क्षेत्र रहा है। विदेशी मशीनरियां यहां सर्वाधिक सक्रिय हैं और विदेशों से अकूत धनराशि इन मिशनरियों के पास मतांतरण के कार्य के लिए आती रहती है। यहां तक कि पिछले दिनों चर्च ने मतांतरण का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या तक करवा दी थी , जिससे राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में दंगे भडक उठे थे ।इंग्लैंड का चर्च आखिर इस प्रकल्प में किन स्वार्थो के कारण निवेश कर रहा है। ऐसा भी सुनने में आया है कि चर्च ने किन्हीं मतभेदों के चलते अब इस प्रकल्प से अपना हाथ खीच लिया है। अनिल अग्रवाल फाउंडेशयन और चर्च के इन आपसी सम्बंधों की भी गहरी जांच होनी चाहिए।

अनिल अग्रवाल का ओडिशा में एक बडा खदान साम्राज्य है उसी का विस्तार इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के माध्यम से होने जा रहा है। जिस जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उसमें यूरेनियम और अन्य बहुमूल्य धातुओं के होने की बात कही जा रही है। विश्वविद्यालय के नाम से जैसा कि अग्रवाल ने स्वयं कहा है वे एक हजार बिस्तरों का अस्पताल बनवाएंगे। जाहिर है कि यह अस्पताल प्राईवेट क्षेत्रों में चल रहे अपोलो और एस्कार्ट अस्पतालों के तर्ज पर ही होगा लेकिन अनेक प्रकार की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस पर स्टीकर विश्वविद्यालय का लगा दिया जाएगा। विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस के नाम पर पांच सितारा होटल बन सकते हैं और विद्यार्थियों को जरुरी चीजें मुहैया कराने के नाम पर विश्वविद्यालय में मॉल खोले जा सकते हैं। जैसा कि ओडिशा की एक सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.जतिन मोहंती ने कहा है कि इस नए शहर में जिसकी जनसंख्या 5 लाख के आस पास होगी प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी की क्या जरुरत है। यदि एक व्यक्ति एक दिन में 80 लीटर पानी का भी प्रयोग भी करता है तो यह पानी 14 लाख लोगों के काम आ सकता है। मोहंती कहते है जाहिर है यह पानी विश्वविद्यालय के नाम पर बनने वाले आलीशान होटलों, आरामगाहों और विश्वविद्यालय द्वारा खेलों के विकास के नाम पर बनाए जाने वाले गोल्फकोर्सो के लिए प्रयोग किया जाएगा। ’’ विश्वविद्यालय पर सरकार का तो कोई नियंत्रण होगा नहीं । मनमानी फीस वसूलकर लूट खसूट का बाजार गरम होगा और जाहिर है ऐसे विश्वविद्यालय में ओडिशा के आम आदमी का बच्चा तो झांक भी नहीं सकेगा।

वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी बंगाल सरकार ने टाटा काउद्योग स्थापित करने के लिए नंदीगा्रम के किसानों पर गोलियां चलवाई और ओडिशा में विश्वविद्यालय के नाम पर अनिल अग्रवाल का खदान साम्राज्य स्थापित करने के लिए राज्य सरकार हजारों हजार किसानों को बेघर करने पर तुली हुई है और राज्य के प्राकृतिक स्त्रोतों को लूट के लिए प्राईवेट हाथों मेंं सौंप रही है। निश्चय ही इस लूट में कुछ हिस्सा उनका भी होगा ही जो निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। अभी तक तो यही लगता है कि जब अनिल अग्रवाल और ओडिशा की आमजनता के बीच अपने-अपने हितों को लेकर टकराव होगा तो राज्य सरकार अनिल अग्रवाल फाउंडेशन के साथ खडी दिखाई देगी। लेकिन लोकतंत्र में आखिर लोकलाज भी कोई चीज होती है इसलिए, सरकार ने ढाल के तौर पर वेदांत विश्वविद्यालय को आगे किया हुआ है।

Monday, June 14, 2010

बाजारीकरण की *पाठशाला*


अवनीश सिंह राजपूत

शैक्षिक संस्थानों और शिक्षा के व्यवसायीकरण की हकीकत बयां करती है फिल्म 'पाठशाला'। विद्यार्थियों को जीवन एवं सामाजिक सरोकारों की सीख देने की बजाय यदि स्कूल धन उगाही का केन्द्र बन जायें तो इसे आप क्या कहेंगे? सिनेमा ने समय-समय पर विभिन्न सामाजिक विकृतियों को सिल्वर स्क्रीन पर उकेरा है और इस बार निर्देशक मिलिंद उइके की फिल्म पाठशाला के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था के व्यावसायीकरण की ऐसी ही विकृति को उजागर करने का प्रयास किया गया है।

पाठशाला में दर्शाया गया है कि स्कूलों में शिक्षा से अधिक पैसे को तरजीह दी जाती है। आज देश के अधिकतर शैक्षिक संस्थान बिजनेस इकाई के रूप में खुद को स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए संस्थानों की ब्रांडिंग उत्पाद की भांति की जाती है। प्रत्येक संस्थान विज्ञापनों एवं इवेंट्स के माध्यम से अपनी ब्रांड वैल्यू या कहें कि मार्किट वैल्यू स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है, जिससे कि धनकुबेरों के बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर मोटी रकम वसूली जा सके। लेकिन इस तरह के चलन से व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिलेगा और धीरे-धीरे शिक्षा गरीब छात्रों की पहुंच से दूर होती चली जाएगी।

स्कूलों में शिक्षा से ज्यादा पैसे का बोलबाला है। विज्ञापन के माध्यम से ये स्कूल लोगों को आकर्षित करने में भले ही सफल हो जाते हों, लेकिन शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में दूर तक इनका कोई सरोकार नजर नहीं आता। एक ऐसे ही स्कूल सरस्वती विद्या मंदिर की कहानी है फिल्म पाठशाला। फिल्म में सामाजिक सरोकार से जुड़ा एक सामाजिक मुद्दा उठाया है और उन लोगों पर निशाना साधा है, जो पैसे कमाने के लिये शिक्षा को व्यापार का माध्यम बना रहे है।

पाठशाला शिक्षा के ऐसे व्यापारियों की कहानी है जिनका छात्रों के करियर, उनकी आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि और सामाजिक विकृतियों से कोई सरोकार नहीं है, उन्हें फिक्र होती है तो सिर्फ और सिर्फ अपनी मोटी कमाई की।
विषय तो ठीक है, लेकिन जिस बात को लेकर पाठशाला फिल्म को कठघरे में खड़ा किया जा रही है, वह है इसकी पठकथा का ढीलापन। शायद यही कारण है कि फिल्म की शुरूआत तो ठीक होती है, लेकिन बीच में भटकने सी लगती है। राहुल प्रकाश उद्यावर 'शाहिद कपूर' उनकी सहयोगी अंजली 'आयशा टाकिया' और सुशांत सरस्वती विद्या मंदिर के अध्यापक की भूमिका में हैं। जबकि स्कूल के प्रधानाचार्य का किरदार नाना पाटेकर ने निभाया है।

खुद शाहिद कपूर ने फिल्म के बारे में कहा है कि 'ये फिल्म अध्यापकों के उस संघर्ष की कहानी है जहां वो बच्चों की पढ़ाई और खेल-कूद के स्तर को लगातार सुधारने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है' जाहिर है की इस बात के पीछे शाहिद कपूर का इशारा स्कूल प्रबंधन की ओर था। फिल्म इस बात की ओर संकेत करती है कि अध्यापक पढ़ाई, खेल-कूद और अन्य गतिविधियों में संतुलन बनाये रखने का प्रयास करते हैं, लेकिन उन्हें प्रवंधन के आगे अपनी नौकरी के भय से झुकना पड़ता है।

शाहिद कपूर मानते हैं कि वर्तमान स्कूली शिक्षा की दशा पर आधारित फिल्म 'पाठशाला' एक चुनौती भरी कहानी है। शिक्षा जैसे विषयों पर आम तौर पर फिल्में बनाये जाने से इस लिये परहेज किया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि ऐसी फिल्म बोरिगं और डाक्युमेंट्री की तरह होती है। शायद तभी ऐसी फिल्मों को मनोरंजन बनाना चुनौती होती है। बरहाल इस फिल्म में कई ऐसे लम्हें है जो छात्रों की समस्याओं पर रोशनी डालते है। स्कूल फीस का अचानक बढ़ जाना और बच्चों के माता-पिता का समय पर फीस ने दे पाने से स्कूल प्रशासन द्वारा उन्हें शमिन्दा किया जाना कुछ ऐसे ही पल है जो व्यावसायिक स्कूलों की असंवेदनशीलता की कलई खोलते है।

स्कूल प्रशासन भले ही शिक्षा के व्यावसायीकरण की ओर कदम बढ़ा रहें हो, लेकिन फिल्म पाठशाला के कलाकारों ने इस सामाजिक मसले पर संजीदा रवैया अपनाते हुए जिम्मेदारी की मिसाल पेश की है। शाहिद कपूर पाठशाला जैसी फिल्में इसलिये करना चाहते थे, ताकि उसके माध्यम से जनमानस का ध्यान इस सामाजिक बुराई की तरफ खींचा जा सके। दूसरी तरफ नाना पाटेकर को फिल्म का विषय इतना पसंद आया कि उन्होंनें इसके लिये पारिश्रमिक लेने से ही इंकार कर दिया और मेहनताने के रूप में मिले पैसे को स्वयंसेवी संस्थाओं को दान कर दिया।

स्कूल की माली हालत के खराब होने का हवाला देकर प्रशासन छात्रों से मोटी रकम वसूलने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अनाने लगता है। नाम की चाहत में स्कूल की गतिविधियां बाजार में बेची जाने नगती है। शहर के व्यापारियों से मिलकर प्रबंधान फरमान जारी कर देता है कि बच्चों को पढाई लिखाई से लेकर खेकूद का सामान यूनिफार्म इत्यादि सब कुछ स्कूल से ही खरीदना होगा जबकि यहां दाम बाजर से काफी अधिक रखने जाते हैं ।

यही नहीं स्कूलों की कमाई के कई अन्य तरीकों को भी फिल्मों में भी दर्शाया गया है। स्कूल का स्वरूप कार्पोरेट कम्पनी की तरह गढा जाने लगता है। यही नही फिल्म में उन स्कूलों की भी चर्चा की गई हैं। जो बाहर से किताबें-कापियां खरीदने पर बच्चों को सजा तक सुना देते है। इन सब कारणों सें सरस्वती स्कूल के अध्यापकों में रोष उत्पन्न हो जाता है और वे सभी बच्चों के साथ मिलकर शाहिद कपूर की अगुआई में हड़ताल कर देते है। जिससे स्कूल की छीछालेदर मच जाती है। मीडीया भी बच्चों की बेचने के लिए लालियत हो उठता हैं। अतंत: मंत्री को इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए स्कूल के प्रबंधक को फाटकार लगानी पड़ती है। बौखलाया हुआ प्रबंधक तत्काल इस शिक्षा के कमोडिफिकेशन की मुहिम को रोकने का आदेश जारी कर देता है।



कुल मिलाकर फिल्म एक संदेश तो देती है, अंत में समस्या के समाधान के लिये जनदबाव और आदोलनात्मक रवैया अपनाने के लिये भी प्रेरित करती है, लेकिन जोरदार तरीके से समस्या को उठाने में काफी कसर बाकी जान पड़ती है। शायद तभी शिक्षा के व्यावसायिकरण के दानव का मुकाबला किया जा सकता है।

बरहाल फिल्म के किरदारों में शाहिद कपूर और आयशा ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है और नाना पाटेकर ने हर बार की तरह इस बार भी अपने अभिनय से लोगों को आकर्षित किया है। मैनेजर के रूप में सौरभ शुक्ला और चपरासी की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव ने भी अच्छी अदाकारी दिखाई है।

यहां यह टिप्पणी आवश्यक है कि निर्माता-निर्देशक-पटकथा लेखक ने विद्यालय का नाम 'सरस्वती विद्या मंदिर' रखा जो वास्तव में देश में विद्यालयों की बड़ी श्रृंखला है। इसके द्वारा संचालित हजारों विद्यालयों में भारतीय संस्कृत और संस्कार की शिक्षा दी जाती है। शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ दमठोंक कर खडे इन सरस्वती शिशु मंदिरों के उल्लेखनीय योगदान को नकारते हुए फिल्म में एक कार्पोरेट पर चलने वाले विद्यालय को सरस्वती विद्या मंदिर नाम देना अपमान जनक है। साथ ही अंग्रजी नाम वाले जिन कान्वेंट स्कूलों में यह व्यापारीकरण फल-फूल रहा है, उनसे मिलता-जुलता नाम रखने से संभवत: जान-बूझकर बचा गया है।

Saturday, June 12, 2010

कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी



आशुतोष भटनागर

दुनियां की सर्वाधिक लोमहर्षक औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी का मुख्य आरोपी और यूनियन कार्बाइड का निदेशक वारेन एंडरसन घटना के चार दिन बाद भोपाल आया और औपचारिक गिरफ्तारी के बाद 25 हजार रुपये के निजी मुचलके पर उसे छोड़ दिया गया।
15 हजार से अधिक लोगों की मौत और लाखों लोगों के जीवन पर स्थायी असर डालने वाले इस आपराधिक कृत्य के आरोपी ऐंडरसन को केन्द्र और राज्य सरकार की सहमति से भोपाल से किसी शाही मेहमान की तरह विदा किया गया। उसके लिये राज्य सरकार के विशेष विमान की व्यवस्था की गयी और जिले का कलक्टर और पुलिस कप्तान उसे विमान तल तक छोड़ने के लिये गये। इस कवायद को अंजाम देने के लिये मुख्यमंत्री कार्यालय भी सक्रिय था और दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय भी।
8 दिसंबर 1984 के सी आई ए के दस्तावेज बताते हैं कि यह सारी प्रक्रिया स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की देख-रेख में चली। निचली अदालत द्वारा दिये गये फैसले में भी केन्द्र सरकार का उल्लेख करते हुए उसे लापरवाही के लिये जिम्मेदार माना है। जानकारी हो कि बिना उपयुक्त सुरक्षा उपायों के कंपनी को अत्यंत विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनेट आधारित 5 हजार टन कीटनाशक बनाने का लाइसेंस न केवल जारी किया गया अपितु 1982 में इसका नवीनीकरण भी कर दिया गया।

घटना की प्रथमिकी दर्ज कराते समय गैर इरादतन हत्या (धारा 304) के तहत मामला दर्ज किया गया जिसकी जमानत केवल अदालत से ही मिल सकती थी किन्तु चार दिन बाद ही पुलिस ने मुख्य आरोपी से उपरोक्त धारा हटा ली। शेष बची हल्की धाराओं के तहत पुलिस थाने से ही उसे निजी मुचलके पर इस शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि उसे जब और जहां हाजिर होने का हुक्म दिया जायेगा, वह उसका पालन करेगा। मजे की बात यह है कि जिस मुचलके पर एंडरसन ने हस्ताक्षर किये वह हिन्दी में लिखा गया था।

राज्य में उस समय तैनात रहे जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारी कह रहे हैं कि सारा मामला मुख्यमंत्री कार्यालय से संचालित हुआ। प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर का अनुमान है कि राजीव गांधी और अर्जुन सिंह के बीच इस मामले में विमर्श हुआ होगा। चर्चा यह भी चल पड़ी है कि एंडरसन ने दिल्ली आ कर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से भी भेंट की थी । इस सबके बीच कांग्रेस प्रवक्ता का बयान आया है कि – मैं इस मामले में केन्द्र की तत्कालीन सरकार के शामिल होने की बात को खारिज करती हूं।

पूरे प्रकरण से राजीव गांधी का नाम न जुड़ने पाये इसके लिये 10 जनपथ के सिपहसालार सक्रिय हो गये हैं। उनकी चिन्ता भोपाल के गैस पीड़ितों को न्याय मिलने से अधिक इस बात पर है कि राजीव गांधी का नाम जुड़ने से मामले की आंच कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक न जा पहुंचे। गनीमत तो यह है कि अर्जुन सिंह ने अभी तक मुंह नहीं खोला है। किन्तु जिस तरह से अर्जुन को बलि का बकरा बना कर राजीव को बचाने के संकेत मिल रहे हैं, अर्जुन सिंह का बयान पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर सकता है।



दिक्कत एक और भी है। क्वात्रोच्चि का मामला भी लग-भग इसी प्रकार से अंजाम दिया गया था। सीबीआई की भूमिका क्वात्रोच्चिके मामले में भी संदिग्ध थी। न तो सीबीआई उसका प्रत्यर्पण करा सकी और न ही विदेश में उसकी गिरफ्तारी के बाद भी उसे भारत ला सकी। बोफोर्स घोटाले में आज तक मुख्य अभियुक्त को न्यायालय से सजा नहीं मिल सकी । किन्तु जनता की अदालत में राजीव अपने-आप को निर्दोष साबित नहीं कर सके। जिस जनता ने उनकी जवानी और मासूमियत पर रीझ कर ऐतिहासिक बहुमत प्रदान किया था उसी ने उन्हें पटखनी देने में भी देर नहीं की।


कांग्रेस के रणनीतिकारों की चिन्ता है कि मामला अगर आगे बढ़ा तो राहुल बाबा का चेहरा संवारने में जो मशक्कत की जा रही है वह पल भर में ढ़ेर हो जायेगी। वे यह भी जानते हैं कि उनकी निपुणता कोटरी में रचे जाने वाले खेल में तो है लेकिन अपनी लोकसभा से चुनाव जीतने के लिये भी उन्हें गांधी खानदान के इस एकमात्र रोशन चिराग की जरूरत पड़ेगी। इसलिये हर आंधी से उसकी हिफाजत उनकी जिम्मेदारी ही नहीं धर्म भी है।

उल्लेखनीय है कि भोपाल गैस कांड जब हुआ तब राजीव को प्रधानमंत्री बने दो महीने भी नहीं हुए थे। उनकी मंडली में भी वे सभी लोग शामिल थे जो आज सोनिया और राहुल के खास नजदीकी और सलाहकार है। राजीव और सोनिया के रिश्ते या सरोकार अगर क्वात्रोच्चि या एंडरसन के साथ थे, अथवा संदेह का लाभ दें तो कह सकते हैं कि अदृश्य दवाब उन पर काम कर रहा था तो भी, उनके कैबिनेट के वे मंत्री जो इस देश की मिट्टी से जुड़े होने का दावा करते हैं, क्यों कुछ नहीं बोले ?

कारण साफ है। कांग्रेस में नेहरू-गांधी खानदान के इर्द-गिर्द मंडराने वाले राजनेताओं से खानदान के प्रति वफादारी की अपेक्षा है, उनकी सत्यनिष्ठा की नहीं। रीढ़विहीन यह राजनेता उस परजीवी की भांति ही व्यवहार करते हैं जिसका अपने-आप में कोई वजूद नहीं होता। दूसरे के रक्त से अपनी खुराक लेने वाले इन परजीवियों को रक्त चाहिये। यह रक्त राजीव का हो, सोनिया का हो, राहुल का हो या एंडरसन का ।

देश की दृष्टि से देखा जाय तो चाहे परदेसी हो या परजीवी, उसका काम सिर्फ खून चूसना है और अपना काम निकल जाने के बाद उसका पलट कर न देखना नितांत स्वाभाविक है। यही क्वात्रोच्चि ने किया, यही एंडरसन ने। जो क्वत्रोच्चि के हमदर्द थे, वही एंडरसन को भी सहारा दे रहे थे। जिनके चेहरे बेनकाब हो चुके हैं, उनकी चर्चा क्या करना। निर्णय तो यह किया जाना है कि इन परदेसियों और परजीवियों को कब तक देश के साथ छल करने की इजाजत दी जायेगी।

Friday, June 4, 2010

‘राजमाता माइनो’ की ‘लाल साड़ी’ से खफा कांग्रेस



प्रकाश झा की फिल्म में कैटरीना का किरदार हो या फिर जेवियर मोरो की किताब.. द रेड साड़ी, दोनों में एक बात समान है और वो है सोनिया की इमेज को लेकर कांग्रेस की फिक्र।कांग्रेस परेशान है। परेशानी की वजह है स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब लाल साड़ी,जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लिखी गई है।
कांग्रेस का कहना है कि इसमें तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया गया है। कांग्रेस ने इसके लिए ज़ेवियर मोरो को नोटिस भी भेज दिया है। इस किताब पर आपत्ति जता रही कांग्रेस,भारत में इसका प्रकाशन रोकने की कोशिश में जुटी है।

लेखक जेवियर मोरो का दावा है कि यह एक उपन्यास है, हिस्ट्री नहीं। उनका कहना है कि कांग्रेस तो चाहेगी कि सोनिया को दिल्ली में पैदा हुई ब्राह्मण बताया जाए। खुद मोरो का मानना है कि उन्हें कांग्रेस पार्टी की तरफ से धमकी भरे ईमेल्स भेजे गए हैं, जिसमें किताब की कई लाइनों पर नाराजगी जताई गई है। उन्होंने कहा है कि वह नोटिस भेजने वाले अभिषेक सिंघवी पर केस दायर करेंगे।

इस केस की अगुआई कर रहे सीनियर वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी औरउनके सहयोगियों का कहना है कि किताब में बेमतलब के और मनगढ़ंत किस्से रचे गए हैं। सब कुछ ऐसे पेश किया गया है, जैसे वाकई हुआ हो। मोरो इसे बायोग्राफी बताकर बेच रहे हैं,जिससे गलत इमेज बनती है। किताब में संजय गांधी को गालियां बकते और सोनिया को राजीव की मौत के बाद इटली चले जाने की सोचते दिखाया गया है। न सिर्फ यह किताब झूठ का पुलिंदा है, बल्कि इसे सच बताकर पेश किया गया है। मामला नेहरू-गांधी फैमिली की इज्जत से खिलवाड़ का बनता है।
ज्ञातव्य है की स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब एल सारी रोसो यानी द रेड सारी,सोनिया गांधी की जिंदगी पर लिखी गई नॉवेल नुमा किताब है। यह 2008 में छपी थी। इटैलियन, फ्रेंच और डच में इसकी दो लाख से ज्यादा कॉपियां बिक चुकी हैं और अब इसका इंगलिश ट्रांसलेशन छपने के लिए तैयार है। मोरो और उनके पब्लिशर्स को लीगल नोटिस मिला है, जिसमें किताब वापस लेने को कहा गया है।
किताब के टाइटल में जिस लाल साड़ी का जिक्र है, उसे लेखक के मुताबिक पंडित नेहरू ने जेल में बुना था और सोनिया ने अपनी शादी के दिन पहना था। यह कहानी है, इटली के एक छोटे से गांव में पैदा हुई लड़की के हैरतअंगेज सफर की जिसे शक्ति तो मिली, लेकिन मौतों के सिलसिले से गुजरकर। किताब का सब-टाइटल है- लाइफ इज द प्राइस ऑफ पावर यानी ताकत की कीमत है जिंदगी।

आज रिलीज हो रही प्रकाश झा की फिल्म राजनीति को कांग्रेस की टेढ़ी नजर का सामना करनापड़ा है। हालांकि नेहरू-गांधी फैमिली ने सीधे कुछ कहने से परहेज किया है, लेकिन कांग्रेसी अपनी नाराजगी छुपा नहीं रहे हैं। माना जाता है कि फिल्म में काट-छांट की गई है। झा सेंसर की सख्ती से खफा हैं।


इमर्जेंसी के दिनों में ' किस्सा कुर्सी का ' बनाकर सरकार का डंडा खा चुके जगमोहन मूंदड़ा का इरादासोनिया पर इसी नाम से फिल्म बनाने का था। सोनिया के रोल के लिए इटैलियन ऐ क्ट्रेस मोनिकाबलुची को साइन भी कर लिया गया था। फिर मूंदड़ा ने सोनिया से मुलाकात की और कुछ ही दिन बादउन्हें सिंघवी का नोटिस मिल गया। कई बरस हो गए , इस फिल्म का जिक्र नहीं हुआ।
बीजेपी के मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने मोरो की किताब के विषयवस्तु पर टिप्पणी करतेहुए कहा कि कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। प्रसाद नेशुक्रवार को रिलीज होने वाली फिल्म 'राजनीति' का उल्लेख करते हुए कहा कि सेंसर बोर्ड में कांग्रेस के सदस्यों ने इस फिल्म से जबर्दस्ती कुछ अंश कटवा दिए। कांग्रेस का ऐसा रवैयाआपातकाल के दिनों की याद दिलाता है, जब प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी और कुछ वरिष्ठ संपादकों को गिरफ्तार कर लिया गया था।
लेकिन मामला कांग्रेस का है तो उसके मानदंड बदल गए हैं। दरअसल इस किताब के लेखक मोरो नेलिखा है कि राजीव की मौत ने सोनिया को झकझोर दिया था। वो सब कुछ समेट कर, वापस इटलीजाने की सोचने लगी थीं। कांग्रेस के लिए ये बात पूरी तरह गलत है। उसका तर्क है की एक जीवितशख्सियत की जिंदगी को काल्पनिक बनाने की कोशिश ठीक नहीं है। बात सोनिया गांधी से जुड़ी हुई है,इसलिए भी ये बात बढ़ गई है। सवाल बड़ा सीधा सा है कि क्या किसी व्यक्ति विशेष का कद लोकतंत्र से भी बड़ा हो सकता है।