शिखर पर तमाम जगह खाली है लेकिन वह पहुचने की लिफ्ट कही नहीं है वहां एक एक कदम सीढ़ियों के रस्ते ही जाना होगा

Tuesday, June 15, 2010

नंदीग्राम से वेदांत विश्वविद्यालय तक- सरकारी दमन की एक ही गाथा



डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री
12 मई 2004 को मुम्बई में वर्ली में रहने वाले चार लोगों ने मिलकर भारतीय कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत स्टरलाईट फाउंडेशन का पंजीयन करवाया। इस धारा के अंतर्गत पंजीयन होने वाली कम्पनियां प्राइवेट होती हैं और उनका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनसेवा करना होता है। फाउंडेशन का पंजीयन करानेवाले ये परोपकारी जीव द्वारकादास अग्रवाल का बेटा अनिल कुमार अग्रवाल और उनकी बेटी सुमन डडवानिया हैं। इनके इस फाउंडेशन में अनिल कुमार अग्रवाल के दादा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल भी हैं। इस प्रकार अग्रवाल परिवार के 4 सदस्यों को स्टरलाईट फाउंडेशन प्रारम्भ हुआ। कम्पनी का पंजीयन करवाते समय यह बताना आवश्यक होता है कि कम्पनी में किसी भी प्रकार की उन्नीस -इक्कीस हो जाने की स्थिति में क्षति की भरपाई करने की किसकी कितनी जिम्मेदारी होगी। इन चारों महानुभावों ने घोषित किया कि प्रत्येक की जिम्मेदारी केवल 5 हजार रुपए तक की होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि स्टरलाईट फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों ने केवल 20 हजार रुपए की जिम्मेदारी को स्वीकार किया। कुछ समय के बाद इस फाउंडेशन ने अपना नाम बदलकर नया नाम वेदांत फाउंडेशन रख दिया।

अनिल अग्रवाल के इस वेदांत फाउंडेशन की गाथा शुरु करने से पहले इसके बारे में थोड़ा जान लेना लाभदायक रहेगा। अग्रवाल इंग्लैंड में वेदांत के नाम से एक कम्पनी चलाते हैं जो अनेक कारणों से काली सूची में दर्ज है। उड़ीसा में अग्रवाल खदानों के धंधे से जुडे हुए हैं जिसको लेकर उन पर अनेक आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं। अग्रवाल उड़ीसा में ही बॉक्साईट की खदानों से जुडे हुए हैं और उन पर खदान के कार्य में अनियमितता बरतने के कारण अनेक मुकदमे चल रहे हैं। अनिल अग्रवाल कैसे फकीरी से अमीरी में दाखिल हुए यह एक अलग गाथा है। अनिल अग्रवाल के वेदांता रिसोर्सेज का नवीन पटनायक से पुराना रिश्ता है अग्रवाल उड़ीसा में वेदांत एल्युमिनियम प्रोजेक्ट चलाते हैं। अरबों रुपए की खदानों का मामला है और खदानों के इस मामले में कम्पनी कितना गड़बड़ घोटाला कर रही है, उड़ीसा के प्राकृतिक स्त्रोंतों को लूट रही है और नियम कानूनों की धज्यियां उडाकर अपना भंडार भर रही है इसका एक नमूना 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गयी केन्द्रीय उच्च शक्ति कमेटी द्वारा न्यायालय को सौंपी गयी रपट से अपने आप स्पष्ट हो जाता है। किस प्रकार अनिल अग्रवाल की खदान कम्पनी ने राज्य सरकार की मिली भगत से झूठ बोला, तथ्यों एवं प्रमाणों को बदला और विशेषज्ञों और उड़ीसा की जनता को जानबूझकर बुद्धू बनाने का प्रयास किया। कम्पनी अपनी गतिविधियों को छुपाना चाहती थी। सरकार इसमें सहायक हो रही थी। इस कमेटी ने सर्वोच्च न्यायालय को संस्तुति की कि अग्रवाल के एल्युमिनियम रिफाईनरी प्रोजेक्ट को जिस प्रकार पर्यावरण सम्बंधी एवं वनक्षेत्र में कार्य करने की अनुमति मिली है उससे इस बात का संदेह गहराता है कि राज्य सरकार इसमें मिली हुई है। जनहितों एवं राष्टृहितों का ध्यान नहीं रखा गया। इसका अर्थ यह हुआ कि अनिल अग्रवाल और उनकी कम्पनियां ओडिशा में क्या कर रहीं हैं यह मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से छुपा हुआ नहीं था। लेकिन शायद नवीन पटनायक के हित उड़ीसा के बजाय कहीं अन्यत्र रहते हैं।

वेदांत फाउंडेशन ने अप्रैल 2006 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को एक पत्र लिखकर यह सूचित किया कि फाउंडेशन पूरी, कोणार्क, मैरीना बीच के साथ एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाना चाहता है जिसका नाम वेदांत विश्वविद्यालय होगा। क्योंकि विश्वविद्यालय बहुत बडा होगा और बकौल अनिल अग्रवाल उसमें से नोबल पुरस्कार विजेता निकला करेंगे इसलिए, उसे इस पवित्र काम के लिए 10 हजार एकड जमीन की जरुरत होगी। शायद, अग्रवाल ने यह भी कहा होगा कि यह उड़ीसा के लिए अत्यंत गौरव का विषय होगा। उड़ीया न जानने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक उड़ीसा के गौरव की बात सुनकर चुप कैसे रह सकते थे। और फिर जब यह प्रस्ताव एक ही परिवार के दादा और पौत्र ने साथ मिलकर दिया हो तो उसकी अवहेलना कैसे की जा सकती थी। आजकल ऐसे संयुक्त परिवार बचे ही कितने हैं। यह अलग बात है नवीन पटनायक ने अग्रवाल परिवार से यह नहीं पूछा कि विश्वविद्यालय खोलने से पहले अपने कहीं कोई स्कूल -इस्कूल भी चलाया है या नहीं। खैर अग्रवाल के मित्र नवीन पटनायाक तुरंत सक्रिय हुए और पत्र मिलने के दो महीने के अंदर -अंदर उनके प्रिसीपल सेक्रेटरी ने 13 जुलाई को वेदांत विश्वविद्यालय खोलने के लिए फाईल चला दी। फाईल कितनी तेजी से दौडी होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके 5 दिन बाद ही 19 जुलाई का उड़ीसा सरकार ने फाउंडेशन के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर कर दिए।। यह अलग बात है कि उड़ीसा के लोकपाल ने बाद में अपने एक आदेश में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि फाउंडेशन की ओर से किसने हस्ताक्षर किए, यह स्पष्ट नहीं है क्यांेकि हस्ताक्षर पढे ही नहीं जा रहे। साथ ही कि यह एमओयू अनिल अग्रवाल फाउंडेशन को किसी समझौते में भी नहीं बांधता। यानी सरकार फाउंडेशन के लिए सबकुछ करेगी लेकिन फाउंडेशन किसी बंधन में बंधा नहीं रहेगा। इसी बीच अनिल अग्रवाल ने वेदांत फाउंडेशन का नाम बदलकर उसका नया नाम अपने नाम पर ही रख लिया।

अब सरकार को अनिल अग्रवाल या उनके फाउंडेशन के लिए 10 हजार एकड जमीन मुहैया करवानी थी, बहुत ज्यादा हो -हल्ला मचने के कारण अग्रवाल ने उड़ीसा सरकार पर एक दया कि और वे लगभग 6 हजार 2 सौ एकड प्राप्त करने पर ही उड़ीया गौरव को बचाने के लिए सहमत हो गए। अनिल अग्रवाल जानते है कि अपने इस नए शिक्षा उद्योग के लिए वे स्वयं भूमि नहीं खरीद सकते थे। किसान अपनी भूमि बेच या न बेचे यह उस पर निर्भर है। वैसे भी यदि किसान अपनी कृषि योग्य जमीन बेच देगा तो भूखों नहीं मरेगा तो और क्या करेगा। दूसरे अग्रवाल यह भूमि खुले बाजार में खरीदते तो निश्चय ही कीमत कहीं ज्यादा देनी पडती। इसके बावजूद भी एकसाथ लगभग 6-7 हजार एकड भूमि मिल पाना भी सम्भव नहीं है। तब एक ही रास्ता बचता था कि नवीन पटनायक इस भूमि का अधिग्रहण करने के बाद यह भूमि अपने मित्र अनिल अग्रवाल को इस शिक्षा उद्योग के लिए सौंप दें। इससे, एक तो भूमि की ही ज्यादा सस्ती कीमतें मिल जाती दूसरे भूमि अधिग्रहण के झंझट का सरकार को ही सामना करना पडता। इसलिए, अनिल अग्रवाल फाउंडेशन ने प्रस्ताव तो विश्वविद्यालय का रखा लेकिन उसका अर्थ पूरी कोणार्क मार्ग पर एक बहुत बडा नया प्राईवेट शहर बसाना है जिसकी मिल्कीयत अग्रवालों के पास रहती। विश्वविद्यालय का नाम देने से एक और सुभीता भी है। इस नए शहर के लिए शिक्षा के नाम पर सारी आधारभूत संरचना ओडिशा सरकार ही उपलब्ध करवा देगी। प्रस्तावित नया शहर अनिल अग्रवाल का होगा और उसे बसाने का खर्चा सरकार उठाएगी। जो भूमि अधिग्रहित की जा रही है उसमें साल मे तीन मौसम में खेती होती है। वह अत्यंत उपजाउ जमीन है। भूमि के अधिग्रहण से लगभग 50 हजार लोग उजड जाएंगे। उनके बसाने की सरकार के पास कोई योजना नहीं है। सरकार समझती है कि किसान को उसकी भूमि का मुआवजा भर देने से कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। एक व्यवसायी तो मुआवजे के पैसे नए स्थान पर अपना व्यवसाय शुरु कर सकता है लेकिन खेती करने वाला किसान जल्दी ही हाथ ही आए पैसे को गैर उत्पादक कामों में लगाकर भूखे मरने लगता है। किसान को जमीन के बदले जमीन चाहिए। लेकिन इस पर ओडिशा सरकार मौन है। उसे अनिल अग्रवाल के प्राईवेट विश्वविद्यालय को स्थापित कर देने की चिंता है। उसके लिए वह शदियांे से स्थापित किसानों को विस्थापित करने में भी नहीं झिझक रही।

अनिल अग्रवाल इसको विश्वविद्यालय कहते हैं उनका कहना है कि इस विश्वविद्यालय में प्रत्येक वर्ष एक लाख छात्र भर्ती किए जाएंगे। विश्वविद्यालय के कोर्स आमतौर पर एक साल से लेकर 5 साल के बीच के होते हैं इस हिसाब से किसी भी समय छात्रों की संख्या 3 से 4 लाख के बीच रहेगी ही। इन छात्रों को पढाने के लिए 20 हजार प्राध्यापक रखे जाएंगे और लगभग इतने ही गैर शिक्षक कर्मचारी। इसका अर्थ यह हुआ कि विश्वविद्यालय के नाम से चलाए जाने वाले इस नए शहर में लगभग 5 लाख की जनसंख्या होगी। नवीन पटनायक भी पढे लिखे प्राणी है और देश विदेश में भी घूमते रहते है। इतना तो वे भी जानते होंगे कि 5 लाख की जनसंख्या वाले स्थान शहर कहलाते हैं विश्वविद्यालय नहीं। अनिल अग्रवाल के अनुसार उनके इस नए विश्वविद्यालयी शहर को प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी चाहिए, 600 मेगावाट बिजली चाहिए, भुवनेश्वर हवाई अड्डे से लेकर इस नए शहर तक 4 लेन राष्ट्रीय राजमार्ग चाहिए और उनका यह भी कहना है कि इस राजमार्ग पर उनका संयुक्त स्वामित्व होगा। जमीन खरीदने पर लगने वाली स्टैम्प डयूटी और खरीद फरोख्त पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्सों से मुक्ति चाहिए और विश्वविद्यालय परिसर से 5 किलोमीटर की परिधि के भीतर किसी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित होना चाहिए। इस परिधि में लगभग 117 गांव और पूरी शहर आ जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन गांवों के लोगों की सम्पत्ति उनकी अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रहेगी क्योंकि वे उस पर अपनी इच्छा से या अपनी जरुरत के मुताबिक किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं करवा सकेंगे। यह लगभग इसी प्रकार की शर्तें है जैसी शर्तें कोई विजेता पार्टी पराजित पार्टी पर थोपती हैं।

उड़ीसा सरकार ने अनिल अग्रवाल की इस महत्वकांक्षी योजना को पूरा करने के लिए एमओयू हस्ताक्षरित हो जाने के एक मास के अंदर ही एक उच्चस्तरीय कोर कमेटी का गठन कर दिया जिसने 1 साल के भीतर ही 6 बैठकें करके भूमि अधिग्रहण का कार्य चालू कर दिया। अनिल अग्रवाल फाउंडेशन की नीयत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोर कमेटी की बैठक में जब यह आपत्ति उठायी गयी कि कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्राईवेट कम्पनी के लिए राज्य सरकार किसानों की भूमि का अधिग्रहण नही ंकर सकती तो फाउंडेशन के प्रतिनिधि ने कोर कमेटी को यह गलत सूचना दे दी कि कम्पनी का स्टेटस बदल गया है और अब वह पब्लिक कम्पनी में परिवर्तित हो गयी है और आश्चर्य इस बात का है कि कोर कमेटी ने भी आंखें बंदकर उनकी इस सूचना को स्वीकार कर लिया। न तो इसके लिए कोई प्रमाण मांगा गया और न ही दिए गए प्रमाण की जांच की गयी। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस तथाकथित विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि में 1361 एकड जमीन भगवान जगन्नाथ मंदिर की भी है जिसे मंदिर अधिनियम के अंतर्गत किसी और को नहीं दिया जा सकता। हो सकता है नवीन पटनायक की भगवान जगन्नाथ में आस्था न हो लेकिन उड़ीसा के करोडों लोग जगन्नाथ में आस्था रखते हैं। ओडिशा की संस्कृति जगन्नाथ की संस्कृति के नाम से ही जानी जाती है। जगन्नाथ की भूमि व्यवसायिक हितों के लिए देकर पटनायक ओडिशा की अस्मिता पर ही आधात कर रहे हैं। मुगल काल में और ब्रिटिश काल में मंदिरों के भूमि हडपने के सरकारी प्रयास होते रहते थे ।पटनायक ने ओडिशा में आज भी उसी परम्परा को जीवित रखा और जगन्नाथ मंदिर की आधारभूत अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया।

परन्तु इन तमान विरोधों के बावजूद जुलाई 2009 में ओडिशा विधाानसभा ने वेदांत विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर दिया। इस बिल की सबसे हास्यास्पद बात यह है कि 5 लाख 40 हजार करोड रुपए से स्थापित होने वाले इस शिक्षा उद्योग के मालिकों से केवल 10 करोड रुपए की प्रतिभूति रखने के लिए कहा गया है। सरकार का कहना है कि यदि विश्वविद्यालय के मालिक सरकारी नियमों को पालन नहीं करेंगे तो उनकी यह 10 करोड रुपए की जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी। यह प्रत्यक्ष रुप से सरकार ने अग्रवाल फाउंडेशन को खुली छूट दे दी है कि वे नियमों को माने या न माने उन्होंने डरने की जरुरत नहीं है। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय की 16 सदस्यों की प्रबंध समिति में 5 लोग सरकार के होंगे। दो विधानसभा के प्रतिनिधि और तीन राज्य सरकार के। इन पांचों में से भी फाउंडेशन अपनी इच्छा के लोग नियुक्त नहीं करवा लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। जब फाउंडेशन ने सरकार की उच्चस्तरीय कोर कमेटी से वह सब कुछ नियमविरुद्ध करवा लिया जिसके लिए राज्य के लोकपाल ने सरकार को फटकार लगायी , तो इन 5 मे से कितने फाउंडेशन के पाल के ही नहीं होंगे -कौन कह सकता है।

इस तथाकथित वेदांत विश्वविद्यालय के खिलाफ ओडीसा में ही 16 मामले न्यायालय में लंबित है लेकिन सरकार इससे किसी प्रकार से भी पूरा करने का हठ किए हुए है।नवीन पटनायक सरकार के इस पूरे प्रकल्प मेंशुरु से ही मिलीभगत रही है यह तो ओडिशा के लोकपाल के आदेश से ही स्पष्ट हो गया था। जो उन्होंने 17 मार्च 2010 को पारित किया था जिसमें इस सारे मामले की जांच करवाए जाने का आदेश दिया था। लेकिन फाउंडेशन की गतिविधियों और उसकी नीयत का अंदाजा एक और घटना से भी लगता है। 16 अप्रैल 2010 को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने फाउंडेशन को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया लेकिन उसके एक मास के भीतर ही पर्यावरण मंत्रालय ने इस प्रकल्प को दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र पर रोक लगाकर एक बार फिर फाउंडेशन व नवीन पटनायक को कटघरे में खडा कर दिया है। मंत्रालय ने कहा है -फाउंडेशन द्वारा की गयी अनियमितताओं, गैर कानूनी, अनैतिक एवं विधिविरुद्ध कृत्यों के आरोपों के चलते अनापत्ति प्रमाणपत्र पर रोक लगा दी गयी है।’ अनिल अग्रवाल, उनके फाउंडेशन और उनके इस प्रस्तावित तथाकथित विश्वविद्यालय को लेकर नवीन पटनायक इतनी जल्दी में क्यों है?

अनिल अग्रवाल के इस प्रकल्प का एक और चिंताजनक पहलू है। कहा जाता है कि इसमें इंग्लैंड के चर्च का भी पैसा लगा हुआ है। ओडिशा मतांतरण के मामले में काफी संवेदनशील क्षेत्र रहा है। विदेशी मशीनरियां यहां सर्वाधिक सक्रिय हैं और विदेशों से अकूत धनराशि इन मिशनरियों के पास मतांतरण के कार्य के लिए आती रहती है। यहां तक कि पिछले दिनों चर्च ने मतांतरण का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या तक करवा दी थी , जिससे राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में दंगे भडक उठे थे ।इंग्लैंड का चर्च आखिर इस प्रकल्प में किन स्वार्थो के कारण निवेश कर रहा है। ऐसा भी सुनने में आया है कि चर्च ने किन्हीं मतभेदों के चलते अब इस प्रकल्प से अपना हाथ खीच लिया है। अनिल अग्रवाल फाउंडेशयन और चर्च के इन आपसी सम्बंधों की भी गहरी जांच होनी चाहिए।

अनिल अग्रवाल का ओडिशा में एक बडा खदान साम्राज्य है उसी का विस्तार इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के माध्यम से होने जा रहा है। जिस जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उसमें यूरेनियम और अन्य बहुमूल्य धातुओं के होने की बात कही जा रही है। विश्वविद्यालय के नाम से जैसा कि अग्रवाल ने स्वयं कहा है वे एक हजार बिस्तरों का अस्पताल बनवाएंगे। जाहिर है कि यह अस्पताल प्राईवेट क्षेत्रों में चल रहे अपोलो और एस्कार्ट अस्पतालों के तर्ज पर ही होगा लेकिन अनेक प्रकार की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस पर स्टीकर विश्वविद्यालय का लगा दिया जाएगा। विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस के नाम पर पांच सितारा होटल बन सकते हैं और विद्यार्थियों को जरुरी चीजें मुहैया कराने के नाम पर विश्वविद्यालय में मॉल खोले जा सकते हैं। जैसा कि ओडिशा की एक सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.जतिन मोहंती ने कहा है कि इस नए शहर में जिसकी जनसंख्या 5 लाख के आस पास होगी प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी की क्या जरुरत है। यदि एक व्यक्ति एक दिन में 80 लीटर पानी का भी प्रयोग भी करता है तो यह पानी 14 लाख लोगों के काम आ सकता है। मोहंती कहते है जाहिर है यह पानी विश्वविद्यालय के नाम पर बनने वाले आलीशान होटलों, आरामगाहों और विश्वविद्यालय द्वारा खेलों के विकास के नाम पर बनाए जाने वाले गोल्फकोर्सो के लिए प्रयोग किया जाएगा। ’’ विश्वविद्यालय पर सरकार का तो कोई नियंत्रण होगा नहीं । मनमानी फीस वसूलकर लूट खसूट का बाजार गरम होगा और जाहिर है ऐसे विश्वविद्यालय में ओडिशा के आम आदमी का बच्चा तो झांक भी नहीं सकेगा।

वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी बंगाल सरकार ने टाटा काउद्योग स्थापित करने के लिए नंदीगा्रम के किसानों पर गोलियां चलवाई और ओडिशा में विश्वविद्यालय के नाम पर अनिल अग्रवाल का खदान साम्राज्य स्थापित करने के लिए राज्य सरकार हजारों हजार किसानों को बेघर करने पर तुली हुई है और राज्य के प्राकृतिक स्त्रोतों को लूट के लिए प्राईवेट हाथों मेंं सौंप रही है। निश्चय ही इस लूट में कुछ हिस्सा उनका भी होगा ही जो निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। अभी तक तो यही लगता है कि जब अनिल अग्रवाल और ओडिशा की आमजनता के बीच अपने-अपने हितों को लेकर टकराव होगा तो राज्य सरकार अनिल अग्रवाल फाउंडेशन के साथ खडी दिखाई देगी। लेकिन लोकतंत्र में आखिर लोकलाज भी कोई चीज होती है इसलिए, सरकार ने ढाल के तौर पर वेदांत विश्वविद्यालय को आगे किया हुआ है।

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